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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०: टि० २६-३१
२६. सन्तोष (सू० ८३)
इसका अर्थ है-अल्पेच्छता । वह आनन्दरूप होती है, इसलिए सुख है । संसार के सभी सुख संतोष-प्रसूत होते हैं।
अपने सामर्थ्य के अनुसार पुरुषार्थ करने के पश्चात् जो फलप्राप्ति होती है उस में तथा प्राप्त अवस्था में प्रसन्नचित्त रहना और सब प्रकार की तृष्णाओं को छोड़ देना संतोष है।
मनुस्मृति में संतोष को सुख का मूल और असंतोष को दुख का मूल माना है।
संतोष और तुष्टि में अन्तर है। संतोष चित्त की प्रसन्नता है और तुष्टि चित्त का आलस्य और प्रमाद आवरण। सांख्यकारिका में तुष्टि के नौ प्रकार बतलाए हैं । उनमें चार आध्यात्मिक और पांच बाह्य हैं।
'प्रकृति से आत्मा सर्वथा पृथक् है'-ऐसा समझकर भी जो साधक असद् उपदेश से सन्तुष्ट होकर आत्मा के श्रवण, मनन आदि द्वारा उसके विवेकज्ञान के लिए प्रयत्न नहीं करता, उसके चार आध्यात्मिक तुष्टियाँ होती हैं---
१. प्रकृति-तुष्टि--प्रकृति स्वयमेव विवेक उत्पन्न कराकर कैवल्य प्रदान करेगी, इस आशा से धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास न करना, यह प्रकृतितुष्टि है।
२. उपादान-तुष्टि-विवेकख्याति संन्यास से उत्पन्न होती है। इसलिए ध्यान से संन्यास ग्रहण उत्तम है। यह उपादान-तुष्टि है । इसका दूसरा नाम 'सलिल' है।
३. काल-तुष्टि-फलोत्पत्ति के लिए काल की अपेक्षा होती है। प्रव्रज्या से भी तत्काल निर्वाण नहीं होता। काल के परिपाक से सिद्धि होती है, अत: उद्विग्ननता: से कोई लाभ नहीं है। यह काल-तुष्टि है।
४. भाग्य-तुष्टि ---विवेकज्ञान न प्रकृति से, न काल से और न प्रव्रज्या ग्रहण से उत्पन्न होता है । मुक्त होने में भाग्य ही हेतु है, अन्य नहीं-इस उपदेश से जो तुष्टि होती है, उसे भाग्यतुष्टि कहते हैं।
आत्मा से भिन्न प्रकृति, महान् अहंकार आदि को आत्मस्वरूप समझते हुए जीव को वैराग्य होने पर जो तुष्टियाँ होती हैं, वे बाह्य हैं । वे पांच प्रकार की हैं
१. पार-तुष्टि—'धनोपार्जन के उपाय दुःखद हैं'-इस विचार से विषयों के प्रति वैराग्य होना पार-तुष्टि है। २. सुपार-तुष्टि--'धन के रक्षण में महान् कष्ट होता है'-इस विचार से विषयों से उपरत होना सुपार-तुष्टि है। ३. पारापार-तुष्टि-धन भोग से नष्ट हो जाएगा'-इस विचार से विषयों से उपरत होना पारापार-तुष्टि है।
४. अनुत्तमाम्भ-तुष्टि-'विषयों के प्रति वासना भोग से वृद्धिंगत होती है और उनकी अप्राप्ति में कष्ट होता हैइस विचार से विषयों से उपरत होना अनुत्तमाम्भ-तुष्टि कहलाती है।
५. उत्तमाम्म-तुष्टि-'भूतों को पीड़ा दिए बिना विषयों का उपभोग नहीं हो सकता-इस विचार से हिसा से उपरत होना उत्तमाम्भ-तुष्टि है।
३०. (सू०८६)
देखें--३।४३८ का टिप्पण।
३१. (सू० ८६)
भगवान ने कहा-'आर्यो ! सत्य दस प्रकार का होता है
१. स्थानांगवृत्ति' पत्न ४६३ : संतोष:-अल्पेच्छता तत् सुखमेव
आनन्दानुरूपत्वात् संतोषस्य, उक्तं चआरोगसारियं माणसुत्तणं सच्चसारिओ धम्मो । विज्जा निच्छयसारा सुहाई सन्तोससराई ।।
२. मनुस्मृति ४११२ : संतोषमूलं हि सुखं, दुःखमूलं विपर्ययः । ३. सांख्यकारिका ५०, तत्त्वकौमुदीव्याख्या, पृष्ठ १४५-१४८ ।
आध्यात्मिकाश्चतस्रः प्रकृत्युपादानकालभाग्याख्याः । बाह्या विषयोपरमात् पञ्च च नवतुष्टयोभिमताः ॥
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