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________________ आमुख इसमें पचहत्तर सूत्न हैं । इनके विषय भिन्न-भिन्न हैं । इसका पहला सूत्र भगवान महावीर के समय की गण-व्यवस्था पर कुछ प्रकाश डालता हुआ गण की अखंडता के साधनभूत अमात्सर्य का निरूपण करता है। प्रत्यनीकता अखंडता के लिए घुण है, अतः जो श्रमण, आचार्य, उपाध्याय आदि का प्रत्यनीक होता है, कर्तव्य से प्रतिकूल आचरण करता है उसे गण से अलग कर देना ही श्रेयस्कर होता है। ऐतिहासिक तथ्यों को अभिव्यक्ति देने वाले सूत्र इस स्थान में संकलित हैं। जैसे सूत्र संख्या २९, ६१ आदि-आदि। सूत्र ६० में भगवान महावीर के तीर्थ में तीर्थकर नाम का कर्म-बंध करने वाले नौ व्यक्तियों का कथन है। उसमें सात पुरुष हैं और दो स्त्रियां। इनका अन्यान्य आगम-ग्रन्थों तथा व्याख्या-ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। पोट्टिल अनगार का उल्लेख अनुत्तरोपपातिक सूत्र में भी मिलता है, किन्तु वहाँ महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होने की बात कही है और यहाँ भरत क्षेत्र से सिद्ध होने का उल्लेख है। अतः यह उससे भिन्न होना चाहिए। तीर्थकर नामकर्म बंध के बीस कारण बतलाए हैं। इन नौ व्यक्तियों के तीर्थकर नामकर्म बंध के भिन्न-भिन्न कारण प्रस्तुत हुए हैं। सूत्र ६२ में महाराज श्रेणिक के भव-भवान्तरों का विवरण है। इस एक ही सूत्र में भगवान महावीर के दर्शन का समग्रता से अवबोध हो जाता है । इसमें समग्र भाव से महावीर का तत्त्वदर्शन, श्रमणचर्या और थावकचर्या का उल्लेख है । इस स्थान के सूत्र १३ में रोगोत्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख है। वह बहुत ही मननीय है। इनमें आठ कारण शारीरिक रोगों की उत्पत्ति के हेतु हैं और इन्द्रियार्थ-विकोपन-मानसिक रोग को उत्पन्न करता है । वृत्तिकार ने बताया है कि अधिक बैठने या कठोर आसन पर बैठने से मसे का रोग होता है । अधिक खाने से अथवा थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल में खाने से अजीर्ण तथा अनेक उदर रोग उत्पन्न होते हैं। ये सारे शारीरिक रोग हैं। मानसिक रोग का मूल कारण हैइन्द्रियार्थ-विकोपन अथवा काम-विकार। इससे उन्माद उत्पन्न होता है और वह सारे मानसिक सन्तुलन को बिगाड़ कर व्यक्ति में अनेक प्रकार के मानसिक रोगों की उत्पत्ति करता है। अन्ततः वह मरण के द्वार तक भी पहुंचा देता है। कामविकार से उत्पन्न होने वाले दस दोष ये हैं १. स्त्री के प्रति अभिलाषा । ३. उसका सतत स्मरण। ५. प्राप्त न होने पर उद्वेग। ७. उन्माद। ९. अकर्मण्यता। २. उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न । ४. उसका उत्कीर्तन। ६. प्रलाप। ८. व्याधि। १०. मृत्यु। इसी प्रकार अब्रह्मचर्य से बचने के नौ व्यावहारिक उपायों का भी ब्रह्मचर्य गुप्ति (सूत्र ३) के नाम से उल्लेख हुआ है। उनमें अन्तिम उपाय है-ब्रह्मचारी को सुविधावादी नहीं होना चाहिए। यह उपाय श्रमण को सतत श्रमशील और कष्टसहिष्णु बनने की प्रेरणा देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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