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________________ स्थान ४ : सूत्र ३६५ ठाणं (स्थान) ३८६ कद्दमोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे, कईमोदकसमानः, खजनोदकसमानः, वालुओदगसमाणे, सेलोदगसमाणे। वालुकोदकसमानः, शैलोदकसमानः । १. कद्दमोदगसमाणं भावमणु- १. कईमोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो पविट्ठ जीवे कालं करेइ, रइएसु जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते, उववज्जति, २. खंजणोदगसमाणं भावमणु- २. खजनोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो पविट्ठ जीवे कालं करेइ, तिरिक्ख- जीवः कालं करोति, तिर्यग्योनिकेषु जोणिएसु उववज्जति, उपपद्यते, ३. वालुओदगसमाणं भावमणु- ३. वालुकोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो पविट्ठ जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु जीवः कालं करोति, मनुष्येषु उपपद्यते, उववज्जति, ४. सेलोदगसमाणं भावमणुपविट्ठ ४. शैलोदकसमानं भावं अनुप्रविष्टो जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति। जीवः कालं करोति, देवेषु उपपद्यते । १. कर्दम उदक के समान, २. खञ्जन उदक के समान, ३. बालुका उदक के समान, ४. शैल उदक के समान। १. कर्दम-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है, २. खजन-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होता है, ३. बालुका-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर मनुष्ययोनि में उत्पन्न होता है, ४. शैल-उदक के समान भाव में अनुप्रविष्ट जीव मरकर देवताओं में उत्पन्न होता है। रुत-रूव-पदं रुत-रूप-पदम् रुत-रूप-पद ३५६. चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः पक्षिणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३५६. पक्षी चार प्रकार के होते हैं रुतसंपण्णे णाममेगे, णो रूवसंपण्णे, रुतसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, १. कुछ पक्षी स्वरसंपन्न होते हैं, पर रूपरुवसंपण्णे णाममेगे. णो रुतसंपण्णे, रूपसम्पन्नः नामकः, नो रुतसम्पन्नः, संपन्न नहीं होते, २. कुछ पक्षी रूपसंपन्न एगे रुतसंपण्णेवि, रूवसंपण्णवि. एकः रुतसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, होते हैं, पर स्वरसंपन्न नहीं होते, एगे णोरुतसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे। एकः नो रुतसम्पन्न:, नो रूपसम्पन्नः । ३. कुछ पक्षी रूपसंपन्न भी होते हैं और स्वरसंपन्न भी होते हैं, ४. कुछ पक्षी रूपसंपन्न भी नहीं होते और स्वरसंपन्न भी नहीं होते। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा है-१. कुछ पुरुष स्वरसंपन्न होते हैं, पर रुतसंपण्णे णाममेगे, णो रूवसंपण्णे, रुतसम्पन्नः नामैकः, नो रूपसम्पन्नः, रूपसंपन्न नहीं होते, २. कुछ पुरुष रूपरुवसंपण्णे णाममेगे, णो रुतसंपण्णे, रूपसम्पन्न: नामकः, नो रुतसम्पन्नः, संपन्न होते हैं, पर स्वरसंपन्न नहीं होते, एगे रुतसंपण्णेवि, रूवसंपण्णेवि, एकः रुतसम्पन्नोऽपि, रूपसम्पन्नोऽपि, ३. कुछ पुरुष रूपसंपन्न भी होते हैं और एगे णो रुतसंपण्णे, णो रूवसंपण्णे। एकः नो रुतसम्पन्नः, नो रूपसम्पन्नः । स्वरसंपन्न भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष रूप संपन्न भी नहीं होते और स्वरसंपन्न भी नहीं होते। तद्यथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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