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________________ ठाणं (स्थान) ३८५ स्थान ४: सूत्र ३५४-३५५ तइओ उद्देसो क्रोध-पदम् कोह-पदं क्रोध-पदम् ३५४. चत्तारि राईओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः राजयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ३५४. राजि [ रेखा] चार प्रकार की होती है--- जहापर्वतराजित, पृथिवीराजि:, १. पर्वत-राजि, २. मृत्तिका-राजि, पव्वयराई, पुढविराई, बालुकाराजिः, उदकराजिः । ३. बालुका-राजि, ४. उदक-राजि। वालुयराई, उदगराई। एवामेव चउन्विहे कोहे पण्णत्ते, एवमेव चतुर्विधः क्रोधः प्रज्ञप्त:, । इसी प्रकार क्रोध भी चार प्रकार का होता तं जहातद्यथा है--१. पर्वत-राजि के समान---- अनन्तानुबन्धी, २. मृत्तिका-राजि के पव्वयराइसमाणे, पुढविराइसमाणे, पर्वतराजिसमानः, पथिवीराजिसमानः, समान-अप्रत्याख्यानावरण, वालुयराइसमाणे, उदगराइसमाणे। बालुकाराजिसमानः, उदकराजिसमानः । ३. वालुका-राजि के समान--प्रत्याख्यानावरण, ४. उदक-राजि के समान---- संज्वलन। १. पव्वय राइसमाणं कोहमणुपविट्ठ १. पर्वतराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो १. पर्वत-राजि के समान क्रोध में अनुजीवे कालं करेइ, रइएसु जीवः कालं करोति, नैरयिकेषु उपपद्यते, प्रविष्ट [प्रवर्तमान ] जीव मरकर नरक में उववज्जति, उत्पन्न होता है, २. पुढविराइसमाणं कोहमणुप्पविट्ठ २. पृथिवीराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो २. मृत्तिका-राजि के समान क्रोध में जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु जीवः कालं करोति, तिर्यग्योनिकेषु अनुप्रविष्ट जीव मरकर तिर्यञ्च योनि में उववज्जति, उपपद्यते, उत्पन्न होता है, ३. वालुयराइसमाणं कोह- ३. बालुकाराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो ३. बालुका-राजि के समान क्रोध में मणुप्पविट्ठ जीवे कालं करेइ, जीवः कालं करोति, मनुष्येषु उपपद्यते, अनुप्रविष्ट जीव मरकर मनुष्य योनि में मणुस्सेसु उववज्जति, उत्पन्न होता है, ४. उदगराइसमाणं कोहमणुपविट्ठ ४. उदकराजिसमानं क्रोधं अनुप्रविष्टो ४. उदक-राजि के समान क्रोध में अनुजीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति। जीवः कालं करोति, देवेषु उपपद्यते। प्रविष्ट जीव मरकर देवताओं में उत्पन्न होता है। भाव-पदं भाव-पदम् भाव-पद ३५५. चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३५५. उदक चार प्रकार का होता है - कद्दमोदए, खंजणोदए, कर्दमोदक, खजनोदकं, बालुकोदकं, १. कईम उदक, २. खञ्जन उदकवालुओदए, सेलोदए। शैलोदकम् । चिमटने वाला कीचड़, ३. बालुका उदक, ४. शैल उदक। एवामेव चउन्विहे भावे पण्णत्ते, एवमेव चतुर्विधः भावः प्रज्ञप्तः, । इसी प्रकार भाव [ रागद्वेषात्मक परिणाम ] तं जहातद्यथा चार प्रकार का होता है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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