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________________ ठाणं (स्थान) स्थान ४ : सूत्र ३३३-३३७ चतारि सूरिया तविसु वा तवंति चत्वारः सूर्याः अताप्सुः वा तपन्ते वा चार सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे। वा तविस्संति वा। तपिष्यन्ति वा। चार कृत्तिका यावत् चार भरणी तक चत्तारि कित्तियाओ जाव चत्तारि चतस्रः कृत्तिका:यावत चतस्रः भरण्यः । के सभी नक्षत्रों ने चन्द्रमा के साथ योग भरणीओ। किया था, करते हैं और करेंगे। ३३३. चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा। चत्वारः अग्नयः यावत् चत्वारः यमाः। ३३३. इन नक्षत्रों के अग्नि यावत् यम ये चार-चार देव हैं। ३३४. चत्तारि अंगारा जाव चत्तारि चत्वारः अङ्गारा: यावत् चत्वारः ३३४. चार अङ्गार यावत् चार भावकेतु तक भावके। भावकेतवः। के सभी ग्रहों ने चार किया था, करते हैं और करेंगे। दार-पदं द्वार-पदम् द्वार-पद ३३५. लवणस्स णं समुद्दस्स चत्तारि दारा लवणस्य समुद्रस्य चत्वारि द्वाराणि ३३५. लवण समुद्र के चार द्वार हैं--- पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा १. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, विजए, वेजयंते, विजयः, वैजयन्तः, जयन्तः, ४. अपराजित । जयंते, अपराजिते। अपराजितः । उनकी चौड़ाई चार योजन की है तथा ते णं दारा चत्तारि जोयणाई तानि द्वाराणि चत्वारि योजनानि उनका प्रवेश [मुख भी चार योजन चौड़ा विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं विष्कम्भेण तावत्कं चैव प्रवेशेन है। उनमें पल्योपम की स्थिति वाले चार पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। महद्धिक देव रहते हैं-१. विजय, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया तत्र चत्वारः देवाः महद्धिका: यावत् २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित । जाव पलिओवमट्ठितिया, परि- पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, वसंति तं जहा तद्यथाविजए वेजयंते, विजयः, वैजयन्तः, जयन्तः, अपराजितः । जयंते, अपराजिए। का है। धायइसंड-पुक्खरवर-पदं धातकीषण्ड-पुष्करवर-पदम् धातकीषण्ड-पुष्करवर-पद ३३६. धायइसंडे णं दीवे चत्तारि जोयण- धातकीषण्ड: द्वीपः चत्वारि योजनशत- ३३६. धातकीषण्ड द्वीप का चक्रवाल-विष्कंभ सयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं सहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः। [वलय का विस्तार] चार लाख योजन पण्णत्ते।। ३३७. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बहिया जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहिस्तात् चत्वारि ३३७. जम्बू द्वीप के बाहर [धातकीपण्ड तथा चत्तारि भरहाई, चत्तारि भरतानि, चत्वारि ऐरवतानि। अर्ध पुष्करवर द्वीप में ] चार भरत और एरवयाई। चार ऐरवत हैं। एवं जहा सदुदेसए तहेव णिर- एवं यथा शब्दोद्देशके तथैव निरवशेष शब्दोद्देशक [दूसरे स्थान के तीसरे उद्दे शक] में जो बतलाया है, वह यहां जान वसेसं भाणियव्वं जाव चत्तारि भणितव्यं यावत् चत्वारः मन्दराः चतस्रः लेना चाहिए। [वहां जो दो-दो बताए गए मंदरा चत्तारि मंदरचूलियाओ। मन्दरचूलिकाः । हैं वे यहां चार-चार जान लेने चाहिए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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