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________________ ठाणं (स्थान) गंदीसरवरदीव-पदं ३३८. नंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल विक्खंभस्स बहुमज्भदेस भागे चउद्दिसि चत्तारि अंजणगपव्वता पण्णत्ता, त जहापुरथिमिल्ले अंजणगपव्वते, दाहिणिल्ले अंजणगपव्वते, पच्चत्थिमिले अंजणपव्वते, उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते । ते णं अंजणगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उड्डू उच्चतेणं, एगं जोयणसहस्सं उबेहेणं, मूले दसजोयणसहस्सा इं विक्खभेणं, तदनंतरं चणं मायाए-मायाए परिहायमाणा - परिहायमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पण्णत्ता । मूले इक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिवखेवेणं, उबर तिष्णि तिणि जोयणसहस्साइं एगं च बावट्ठ जोयणसतं परिक्खेवेणं । मूले विच्छण्णा मज् संखेत्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वअंजणमया अच्छा सहा लव्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला furiat furias-च्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणीया अभिरुवा पडिरूवा । ३३. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उर्वार बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता । Jain Education International ३७७ नन्दीश्वरवरद्वीप-पदम् नन्दीश्वरवरद्वीप - पद नन्दीश्वरवरस्य द्वीपस्य चक्रवाल- ३३८. नन्दीश्वरवर द्वीप के चक्रवाल- विष्कंभ के विष्कम्भस्य बहुमध्यदेशभागे चतुर्दिशि चत्वारः अञ्जनकपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा पौरस्त्यः अञ्जनकपर्वतः, दाक्षिणात्य : अञ्जनकपर्वतः, अञ्जनकपर्वतः, अञ्जनकपर्वतः । पाश्चात्यः उदीच्यः ते अञ्जनकपर्वताः चतुरशीति योजनसहस्राणि ऊर्ध्व उच्चत्वेन, एकं योजनसहस्र उद्वेधेन मूले दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेण तदनन्तरं च मात्रया मात्रया परिहीयमानाः-परिहीयमानाः उपरि एक योजन सहस्रं विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः । मूले एकत्रिंशत् योजन सहस्राणि षट् च त्रिविशति योजनशतं परिक्षेपेण, उपरि त्रीणि त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्ठियोजनशतं परिक्षेपेण । स्थान ४ : सूत्र ३३८-३३६ मूले विस्तृताः मध्ये संक्षिप्ताः उपरि तनुका: गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वाञ्जनमया: अच्छा: श्लक्ष्णाः श्लक्ष्णाः घृष्टा: मृष्टाः नीरजसः निर्मला: निष्पङ्काः निष्कंकट - च्छायाः सप्रभाः समरीचिकाः सोद्योताः प्रासादीया: दर्शनीया अभिरूपा: प्रतिरूपाः । For Private & Personal Use Only बहुमध्य देशभाग--ठीक बीच में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं मूल में उनकी परिधि इकतीस हजार छः सौ तेइस योजन और ऊपरी भाग में तीन हजार एक सौ बासठ योजन की है। ये मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और अन्त में पतले हैं। उनका आकार गाय की पूंछ जैसा है । वे नीचे से ऊपर तक अञ्जन रत्नमय हैं । वे स्फटिक की भांति अच्छपारदर्शी हैं। वे चिकने, चमकदार, शाण पर घिसे हुए से, प्रमार्जनी से साफ किए हुए से, रज रहित, पंक रहित, निरावरण शोभा वाले, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय हैं। तेषां अञ्जनकपर्वतानां उपरि बहुसम - ३३९. उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समरमणीयाः भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः । तल और रमणीय भूमि-भाग हैं। उनके मध्य में चार सिद्धायतन हैं। वे एक सौ १. पूर्वी अञ्जन पर्वत, २. दक्षिणी अञ्जन पर्वत, ३. पश्चिमी अञ्जन पर्वत, ४. उत्तरी अञ्जन पर्वत । उनकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन की है । वे एक हजार योजन तक धरती में अवस्थित हैं। मूल में उनका विस्तार दस हजार योजन का है। वह क्रमशः घटतेघटते ऊपरी भाग में एक हजार योजन का रह जाता है | www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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