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________________ ठाणं (स्थान) स्थान ४ : सूत्र १०२-१०६ सच्च-मोस-पदं सत्य-मृषा-पदम् १०२. चउविहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं सत्यं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- काउज्जुयया, भासुज्जुयया, कायर्जुकता, भाषर्जुकता, भावर्जुकता, भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे। अविसंवादनायोगः । सत्य-मृषा-पद १०२. सत्य चार प्रकार का होता है १. काय-ऋजुता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाले काया के संकेत, २. भाषाऋजुता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली वाणी का प्रयोग, ३. भाव-ऋजुतायथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली मन की प्रवृत्ति, ४. अविसंवादनायोगअविरोधी, धोखा न देने वाली या प्रति ज्ञात अर्थ को निभाने वाली प्रवृत्ति। १०३. असत्य चार प्रकार का होता है १. काया की कुटिलता-यथार्थ को ढांकने वाला काया का संकेत, २. भाषा की कुटिलता--यथार्थ को ढांकने वाला वाणी का प्रयोग, ३. भाव की कुटिलतायथार्थ को छिपाने वाली मन की प्रवृत्ति, ४. विसंवादनायोग-विरोधी, धोखा देने वाली या प्रतिज्ञात अर्थ को भंग करने वाली प्रवृत्ति। १०३. चउविहे मोसे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधा मृषा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- कायअणुज्जुयया, भासअणुज्जुयया, कायानृजुकता, भाषानृजुकता, भावअणुज्जुयया, भावानृजुकता, विसंवादनायोगः । विसंवादणाजोगे। पणिधाण-पदं प्रणिधान-पदम् प्रणिधान-पद १०४. चउन्विहे पणिधाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधानि प्रणिधानानि प्रज्ञप्तानि, १०४. प्रणिधान चार प्रकार का होता है जहा_मणिपणधाणे, वइपणिधाणे, तद्यथा—मनःप्रणिधानं, वाक्प्रणिधानं, १. मनप्रणिधान, २. वचनप्रणिधान, कायपणिधाणे, उवकरणपणिधाणे, कायप्रणिधानं, उपकरणप्रणिधानम, ३. कायप्रणिधान, ४. उपकरणप्रणिधान । एवं...णेरइयाणं पंचिदियाणं जाव एवम्-नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रियाणां ये नारक आदि सभी पञ्चेन्द्रिय-दण्डकों वेमाणियाणं। यावत् वैमानिकानाम् । में प्राप्त होते हैं। १०५. चउव्विहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधानि सुप्रणिधानानि प्रज्ञप्तानि, १०५. सुप्रणिधान चार प्रकार का होता हैजहा—मणसुप्पणिहाणे, तद्यथा—मनःसुप्रणिधानं, १. मनसुप्रणिधान, २. वचनसुप्रणिधान, 'वइसुप्पणिहाणे,कायसुप्पणिहाणे,° वाक्सुप्रणिधानं, कायसुप्रणिधानं, ३. कायसुप्रणिधान, उवगरणसुप्पणिहाणे। उपकरणसुत्रणिधानम् । ४. उपकरणसुप्रणिधान। एवं-संजयमणुस्साणवि। एवम्-संयतमनुष्याणामपि। ये चारों संयत मनुष्य के होते हैं । १०६. चउविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं चतुर्विधानि दुष्प्रणिधानानि प्रज्ञप्तानि, १०६. दुष्प्रणिधान चार प्रकार का होता है। जहा—मणदुप्पणिहाणे, तद्यथा—मनःदुष्प्रणिधानं, १. मनदुष्प्रणिधान, २. वचनदुष्प्रणिधान, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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