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________________ ठाणं (स्थान) स्थान २ : सूत्र १७५-१७६ असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे असुरकुमारत्वं विप्रजहत् मनुष्यतया होने वाले जीव मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रिय, मणुस्सत्ताए वा तिरिक्ख- वा तिर्यग्योनिकतया वा गच्छेत् । तिर्यच योनि से आकर उत्पन्न होते हैं। जोणियत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं- एवम् – सर्वदेवाः । वे देव अवस्था को छोड़कर मनुष्य अथवा सव्वदेवा। तिर्यञ्च योनि में जाते हैं। १७५. पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पृथिवीकायिका द्विगतिका द्वयागतिकाः १७५. पृथ्वीका यिक जीवों की दो गति और दो पण्णता, तं जहा—पुढविकाइए प्रज्ञप्ताः, तद्यथा—पृथिवीकायिकः आगति होती हैंपुढविकाइएस् उववज्जमाणे पृथिवीकायिकेष उपपद्यमानः पृथिवी- पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाले जीव पुढविकाइएहितो वा णो पुढवि- कायिकेभ्यो वा नो पृथिवीकायिकेभ्यो पृथ्वीकाय अथवा अन्य योनियों से आकर काइएहितो वा उववज्जेज्जा। वा उपपद्येत ।। उत्पन्न होते हैं। से चेव णं से पुढविकाइए स चैव असौ पृथिवीकायिकः पृथिवी- वे पृथ्वी की अवस्था को छोड़कर पृथ्वीपुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे कायिकत्वं विप्रजहत् पृथिवीकायिकतया काय अथवा अन्य योनियों में जाते हैं। पुढविकाइयत्ताए वा णो पुढवि- वा नो पृथिवीकायिकतया वा गच्छेत् । का इयत्ताए वा गच्छेज्जा। १७६. एवं—जाव मणुस्सा। एवम्-यावत् मनुष्याः । १७६. अप्काय से मनुष्य तक के सभी दण्डकों की दो गति और दो आगति होती हैंवे अपने-अपने काय से अथवा अन्य योनियों से आकर उत्पन्न होते हैं। वे अपनी-अपनी अवस्था को छोड़कर, अपने-अपने काय में अथवा अन्य योनियों में जाते हैं। दंडग-मग्गणा-पदं दण्डक-मार्गणा-पदम् दण्डक-मार्गणा-पद १७७. दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७७. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों भवसिद्धिया चेव, अभवसिद्धिया भवसिद्धिकाश्चैव, अभवसिद्धिकाश्चैव के दो-दो प्रकार हैंचेव जाव वेमाणिया। यावत वैमानिकाः । भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक। १७८. दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७८. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों जहा-अणंतरोववण्णगा चेव, अनन्तरोपपन्नकाश्चैव, के दो-दो प्रकार हैंपरंपरोववण्णगा चेव जाव परम्परोपपन्नकाश्चैव अन्तरोपपन्नक। वेमाणिया। यावत वैमानिकाः। परम्परोपपन्नक। १७६. दुविहा जेरइया पण्णत्ता, तं द्विविधा नैरयिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १७६. नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों जहा—गतिसमावण्णगा चेव, गतिसमापन्नकाश्चैव, के दो-दो प्रकार हैं-गतिसमापन्नक"-- अगतिसमावण्णगा चेव अगतिसमापन्नकाश्चैव अपने-अपने उत्पत्ति स्थान की ओर जाते जाव वेमाणिया। यावत् वैमानिकाः। हुए । अगतिसमापन्नक-अपने-अपने भव में स्थित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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