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________________ ठाणं (स्थान) स्थान २: सूत्र १७०-१७४ बीओ उद्देसो वेदणा-पदं वेदना-पदम् वेदना-पद १७०.जे देवा उडोववण्णगा कप्पोव- ये देवा ऊदोपपन्नकाः कल्पोपपन्नका: १७०. ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न देव, जो कल्प में वण्णगा विमाणोववण्णगा चारोव- विमानोपपन्नका: चारोपपन्नकाः उपपन्न हैं, जो विमान में उपपन्न हैं,जो वण्णगा चार द्वितिया गतिरतिया चारस्थितिकाः गति रतिका: गतिसमा- चार में उपपन्न हैं, जो चार में स्थित गतिसमावण्णगा, तेसि णं देवाणं पन्नका:, तेषां देवानां सदा समितं यत् हैं, जो गतिशील और सतत गति वाले सता समितं जे पावे कम्मे कज्जति, पापं कर्म क्रियते, तत्रगताअपि एके हैं, उन देवों के सदा, समित (परिमित) तत्थगतावि एगतिया वेदणं वेदनां वेदयन्ति, अन्यत्रगताअपि एके जो पाप कर्म का बन्ध होता है, कई देव वेदेति, अण्णत्थगतावि एगतिया वेदनां वेदयन्ति । उसका उसी भव में वेदन करते हैं और वेअणं वेदेति। कई उसका वेदन भवान्तर में करते हैं। १७१. जेरइयाणं सता समियं जे पावे नैरयिकाणां सदा समितं यत् पापं कर्म १७१. नैरयिक तथा द्वीन्द्रिय से तिर्यंचपञ्चेन्द्रिय कम्मे कज्जति, तत्थगतावि क्रियते, तत्रगताअपि एके वेदनां तक के दण्डकों के सदा, समित (परिमित) एगतिया वेयणं वेदेति, अण्णत्थ- वेदयन्ति, अन्यत्रगताअपि एके वेदनां जो पाप-कर्म का बंध होता है, कई उसका गतावि एगतिया वेयणं वेदेति वेदयन्ति । उसी भव में वेदन करते हैं और कई जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं। यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्। उसका वेदन भवान्तर में करते हैं। १७२. मणुस्साणं सता समितं जे पावे मनुष्याणां सदा समितं यत् पापं कर्म १७२. मनुष्यों के सदा समित (परिमित) जो कम्मे कज्जति, इहगतावि एगतिया क्रियते, इहगताअपि एके वेदनां वेद- पाप-कर्म का बंध होता है, कई मनुष्य वेयणं वेयंति, अण्णत्थगतावि यन्ति, अन्यत्रगताअपि एके वेदनां वेद- उसका इसी भव में वेदन करते हैं और एगतिया वेयणं वेयंति । मणुस्स- यन्ति । मनुष्यवर्जाः शेषा एकगमाः। कई उसका वेदन भवान्तर में करते हैं। वज्जा सेसा एक्कगमा। गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम् गति-आगति-पद १७३. णेरइया दुगलिया दुयागतिया नैरयिका द्विगतिका व्यागतिकाः १७३. नरयिक जीवों की दो गति और दो पण्णत्ता, तं जहा—णेरइए प्रज्ञप्ताः, तद्यथा आगति होती हैं। नरक में उत्पन्न होने रइएसु उववज्जमाणे मणुस्सेहितो नैरयिक: नैरयिकेषु उपपद्यमान: वाले जीववा पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो मनुष्येभ्यो वा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि- मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वा उववज्जेज्जा। __ केभ्यो वा उपपद्येत। से आकर उत्पन्न होते हैं। से चेव णं से णेरइए णेरइयत्तं स चैव असौ नैरयिक: नैरयिकत्वं । नैरयिक नारक अवस्था को छोड़करविप्पजहमाणे मणस्सत्ताए वा विप्रजहत मनुष्यतया वा पञ्चेन्द्रिय- मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनि पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा तिर्यग्योनिकतया वा गच्छेत् । में जाते हैं। गच्छेज्जा। १७४. एवं असुरकुमारावि । एवम्-असुरकुमारा अपि। १७४. असुरकुमार आदि देवों की दो गति और णवरं-से चेव णं से असुरकुमारे नवरं—स चैव असौ असुरकुमार: दो आगति होती हैं-देव गति में उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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