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________________ ठाणं (स्थान) १२६ स्थान २: टि०६४-६५ ६४– विग्रहगति (सू० १६१) जीव की एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय बीच में होने वाली गति दो प्रकार की होती है-ऋजु और विग्रह (वक्र)। ऋजु गति एक समय की होती है । मृत जीव का उत्पत्ति-स्थान विश्रेणि में होता है तब उसकी गति विग्रह (वक्र) होती है । इसीलिए वह दो से लेकर चार समय तक की होती है। जिस विग्रहगति में एक घुमाव होता है उसका कालमान दो समय का, जिसमें दो घुमाव हों उसका कालमान तीन समय का और जिसमें तीन घुमाव हों उसका कालमान चार समय का होता है। ६५ (सू० १६८) प्रस्तुत सूत्र में कुछ शब्द विवेचनीय हैं । वे ये है१. शिक्षा-इसके दो प्रकार हैंग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा। ग्रहणशिक्षा-सूत्र और अर्थ का ग्रहण करना। आसेवनशिक्षा-प्रतिलेखन आदि का प्रशिक्षण लेना। २. भोजनमंडली–प्राचीनकाल में साधुओं के लिए सात मंडलियां होती थीं' १. सूत्रमंडली। २. अर्थमंडली। ३. भोजनमंडली। ४. कालप्रतिलेखनमंडली। ५. आवश्यक (प्रतिक्रमण) मंडली। ६. स्वाध्यायमंडली। ७. संस्तारकमंडली। ३. उद्देश-यह अध्ययन तुम्हें पढ़ना चाहिए-गुरु के इस निर्देश को उद्देश कहा जाता है। ४. समुद्देश-शिष्य भली-भाँति पाठ पढ़कर गुरु को निवेदित करता है। गुरु उस समय उसे स्थिर, परिचित करने का निर्देश देते हैं । यह निर्देश समुद्देश कहलाता है। ५. अनुज्ञा-पढ़े हुए पाठ के स्थिर परिचित हो जाने पर शिष्य फिर उसे गुरु को निवेदित करता है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर गुरु उसे सम्यक् प्रकार से धारण करने और दूसरों को पढ़ाने का निर्देश देते हैं । इस निर्देश को अनुज्ञा कहा जाता है। ६. आलोचना-गुरु को अपनी भूलों का निवेदन करना। ७. व्यतिवर्तन-अतिचारों के क्रम का विच्छेदन करना। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५२ : विग्रहगतिः-वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात् । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५३ । ३. प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६६ । ४. अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र ३ : इदमध्ययनादि त्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेष उद्देशः। ५. अनुयोगद्वारवृत्ति, पत्र ३ : तस्मिन्नेव शिष्येण अहीनादिलक्षणोपेतेऽधीते गुरो निवेदिते स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति गुरुचक्नविशेष एव समुद्देशः । ६. अनुयोगद्वारवृत्ति, पन्न ३ : तथा कृत्वा गुरोनिवेदिते सम्यगिदं धारयाभ्यांश्वाध्यापयेति तद्वचनविशेष एवानुज्ञा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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