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ठाणं (स्थान)
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स्थान २: टि० ५६-६३
यहां सूक्ष्म और बादर आपेक्षिक नहीं है, जैसे चने की तुलना में गेहूं सूक्ष्म और राई की तुलना में वह स्थूल होता है। यहां सूक्ष्मता और स्थूलता कर्मशास्त्रीय परिभाषा द्वारा निश्चित है। जिन जीवों के सूक्ष्मनामकर्म का उदय होता है वे सूक्ष्म और जिन जीवों के बादरनामकर्म का उदय होता है वे बादर कहलाते हैं । सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त होते हैं और बादर जीव लोक के एक भाग में रहते हैं। सूक्ष्म जीव इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं होते। बादर जीव इन्द्रियों तथा बाह्य उपकरण-सामग्री द्वारा गृहीत होते हैं। ५६ पर्याप्तक-अपर्याप्तक (सू० १२८)
जन्म के आरम्भ में प्राप्त होने वाली पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। वे छः हैं । जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों से युक्त होते हैं वे पर्याप्तक कहे जाते हैं।
जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर पाए हों, वे अपर्याप्तक कहे जाते हैं।
५७ परिणत, अपरिणत (सू० १३३)
प्रस्तुत छः सूत्रों में परिणत और अपरिणत का तत्त्व समझाया गया है। परिणत का अर्थ है-वर्तमान परिणति (पर्याय) से भिन्न परिणति में चले जाना और अपरिणत का अर्थ है- वर्तमान परिणति में रहना । इनमें पूर्ववर्ती पांच सूत्रों का सम्बन्ध पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय से है और छठे सूत्र का सम्बन्ध द्रव्य मात्र से है। पृथ्वीकाय आदि परिणत और अपरिणत दोनों प्रकार के होते हैं- इसका अर्थ है कि वे सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार के होते हैं।
५८-६३ (सू० १५५-१६०)
शारीरिक दृष्टि से जीव छः प्रकार के होते हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । विकासक्रम के आधार पर वे पांच प्रकार के होते हैं
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंरेन्द्रिय ।
इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान शरीर-रचना से सम्बन्ध रखता है। जिस जीव में इन्द्रिय और मानसज्ञान की जितनी क्षमता होती है, उसी के आधार पर उनकी शरीर-रचना होती है और शरीर-रचना के आधार पर ही उस ज्ञान की प्रवत्ति होती है। प्रस्तुत आलापक में शरीर-रचना और इन्द्रिय तथा मानसज्ञान के विकास का सम्बन्ध प्रदर्शित है
जीव
बाह्य शरीर (स्थूल शरीर)
इन्द्रिय ज्ञान
१. एकेन्द्रिय-(पृथिवी, अप्, तेजस्, (औदारिक)
स्पर्शनज्ञान वायु, वनस्पति) २. द्वीन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) । ३. त्रीन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) | घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान ४. चतुरिन्द्रिय
औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) चक्ष, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान ५. पंचेन्द्रिय (तियंच)
औदारिक (अस्थिमांस शोणित स्नायु । श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान
शिरायुक्त) ६. पंचेन्द्रिय (मनुष्य)
औदारिक (अस्थिमांस शोणित स्नायु श्रोत्र, चक्ष, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान शिरायुक्त)
१. उत्तराध्ययन, ३६।७८ :
सुहुमा सवलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा।
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