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________________ ठाणं (स्थान) ५३-५४ (सू० १०२-१०३ ) अवग्रह इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान क्रम में पहला अंग है । अनिर्देश्य (जिसका निर्देश न किया जा सके ) सामान्य धर्मात्मक अर्थ के प्रथम ग्रहण को अर्थावग्रह कहा जाता है' । अर्थ शब्द के दो अर्थ हैं- द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य और विशेष । अर्थावग्रह का विषय किसी भी शब्द के द्वारा कहा नहीं जा सकता। इसमें केवल 'वस्तु है' का ज्ञान होता है। इससे वस्तु के स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया आदि की शाब्दिक प्रतीति नहीं होती । उपकरण इन्द्रिय के द्वारा इन्द्रिय के विषयभूत द्रव्यों के ग्रहण को व्यञ्जनावग्रह कहा जाता है। क्रम की दृष्टि से पहले व्यञ्जनावग्रह, फिर अर्थावग्रह होता है। अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों का होता है जबकि व्यञ्जनावग्रह चार इन्द्रियों का होता है । चक्षु और मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं होता । उत्तरवर्ती न्याय ग्रन्थों में व्यञ्जनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। नंदी तथा प्रस्तुत सूत्र से उसका व्युत्क्रम मिलता है। यह किस दृष्टि से किया गया, इस विषय में वृत्तिकार ने चर्चा नहीं की है, फिर भी वृत्ति से यह फलित होता है कि अर्थावग्रह प्रत्यक्ष को मुख्य मानकर सूत्रकार ने उसे प्रथम स्थान दिया है । नंदी के अनुसार अवग्रह आदि केवल श्रुत निश्रित मति के ही प्रकार हैं। स्थानांग के अनुसार अवग्रह hai ( श्रुतनिश्रित और अश्रुत निश्रित) का होता है । वृत्तिकार ने अश्रुत निश्रित मति के दो प्रकार बतलाए हैं १. श्रोत्र आदि इन्द्रियों से उत्पन्न । २. औत्पत्तिकी आदि बुद्धि-चतुष्टय | प्रथम प्रकार में अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह दोनों होते हैं। दूसरे प्रकार में केवल अर्थावग्रह होता है, क्योंकि व्यञ्जनवग्रह इन्द्रिय-आश्रित होता है। बुद्धि-चतुष्टय मानस ज्ञान है, इसलिए वहां व्यञ्जनावग्रह नहीं होता" । व्यञ्जनावग्रह की इस अव्यापकता और गौणता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने प्राथमिकता अर्थावग्रह को दी ऐसी सम्भावना की जा सकती है। ५५ - सूक्ष्म - बादर ( सू० १२३ ) १२४ अर्थावग्रह निर्णयोन्मुख होता है, तब यह प्रमाण माना जाता है और जब निर्णयोन्मुख नहीं होता तब वह अनध्यवसाय - अनिर्णायक ज्ञान कहलाता है । अर्थावग्रह के दो भेद और हैं—नैश्चयिक और व्यावहारिक । नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और व्यावहारिक अर्थावग्रह का कालमान अन्तर्मुहूर्त्त माना गया है । अर्थावग्रह के छः प्रकार प्रस्तुत आगम ( ६६८ ) में बतलाए गए हैं। सूक्ष्म का अर्थ है छोटा और बादर का अर्थ है स्थूल । १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७ : अयंते-अधिगम्यतेऽय्यंते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेष निरपेक्षा निर्देश्यस्य रूपादेरव ग्रहणं -- प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रह इति । Jain Education International २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७ : व्यज्यतेऽनेनार्थ: प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्वपरिणत द्रव्यसंघातो वा ततश्च व्यञ्जनेन उपकरणेन्द्रियेण शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो, व्यञ्जनावग्रह इति । ३. नंदी सूत्र ४० : स्थान २ : टि० ५३-५५ से कि तं उग्गहे ? उहे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा - अग जय । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७ : अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहभेदेनाश्रुत निश्रितमपि द्विधैवेति, इदं च श्रोत्रादिप्रभवमेव, यत्तु औत्पत्तिक्याद्यश्रुतनिश्रितं तत्रार्थावग्रहः सम्भवति, यदाह किह पडिकुक्कुडहीणो, जुज्झे बिबेण उग्गहो ईहा । कि सुसिलिट्ठमवाओ, दप्पणसंकेत बिबंति ॥ न तु व्यञ्जनावग्रहः, तस्येन्द्रियाश्रितत्वात् बुद्धीनां तु मानसत्वात् ततो बुद्धिभ्योऽन्यत्त व्यञ्जनावग्रहो मन्तव्य इति ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३५१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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