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ठाणं (स्थान)
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स्थान २:टि० ६६-७६
६६ प्रायोपगत अनशन (सू० १६६)
प्रायोपगत अनशन-देखें, उत्तराध्ययन, ३०/१२-१३ का टिप्पण।
६७ कल्प में उपपन्न (सू० १७०)
सौधर्म से लेकर अच्युत तक के बारहदेवलोक कल्प कहलाते हैं। इनमें स्वामी, सेवक आदि का कल्प (व्यवस्था) होता है, इसलिए इनमें उपपन्न होने वाले देवों को कल्पोपपन्न कहा जाता है।
६८ विमान में उपपन्न (सू० १७०)
नववेयक और पांच अनुत्तरविमान में उपपन्न होने वाले देव कल्पातीत होते हैं। इनमें स्वामी, सेवक आदि का कल्प नहीं होता, अतएव वे कल्पातीत कहलाते हैं । ये सब अवलोक में होते हैं।
६६ चार में उपपन्न (सू ० १७०)
चार का अर्थ है-ज्योतिश्चक्र। इसमें उत्पन्न होने वाले देवों को चारोपपन्न कहा जाता है।
७० चार में स्थित (सू० १७०)
समयक्षेत्र के बाहर रहने वाले ज्योतिष्क देव ।
७१ गतिशील (सू० १७०)
समयक्षेत्र के भीतर रहने वाले ज्योतिष्क देव ।
७२ मनुष्यों के (सू० १७२)
___ सूत्रकार स्वयं मनुष्य है, अतः उन्होंने मनुष्य के सूत्र में 'तत्थ' के स्थान में 'इह' का प्रयोग किया है। ७३ तिर्यंच (सू० १७४)
यहां पंचेन्द्रिय का ग्रहण इसलिए नहीं किया गया है कि देव अपने स्थान से च्युत होकर पृथ्वी, अप् और वनस्पतिइन एकेन्द्रिय योनियों में भी जा सकते हैं।
७४-७५ गतिसमापनक-अगतिसमापन्नक (सू० १७६)
गति का अर्थ होता है—जाना। यहां गति शब्द का अर्थ है, जीव का एक भव से दूसरे भव में जाना। गतिसमापन्नक-अपने-अपने उत्पत्ति-स्थान की ओर जाते हुए। अगतिसमापन्नक-अपने-अपने भव में स्थित ।
७६ (सू० १८१)
आहार तीन प्रकार के होते हैं१. ओजआहार। २. लोमआहार। ३. प्रक्षेपआहार (कवलआहार)।
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