________________
ठाणं (स्थान)
१२८
स्थान २ : टि० ७७
उत्पत्ति के समय सर्वप्रथम जो आहार ग्रहण करता है उसे ओज आहार कहते हैं । यह आहार सब अपर्याप्तक
जीव लेते हैं ।
शरीर के रोमकूपों के द्वारा बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किया जाता है, उसे लोम आहार कहते हैं। यह सभी जीवों के द्वारा लिया जाता है ।
कवल के द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे प्रक्षेप या कवल आहार कहते हैं । एकेन्द्रिय, देव और नरक के जीव कवल आहार नहीं करते। शेष सभी ( मनुष्य और तिर्यंच) जीव कवल आहार करते हैं।
जो जीव तीन आहारों में से किसी भी आहार को लेता है वह आहारक और जो किसी भी आहार को नहीं लेता वह अनाहारक होता है।
सिद्ध अनाहारक होते हैं । संसारी जीवों में अयोगी केवली अनाहारक होते हैं। सयोगी केवली समुद्घात के समय तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक होते हैं ।
मोक्ष में जाने वाले जीव अन्तरालगति के समय सूक्ष्म तथा स्थूल सब शरीरों से मुक्त होते हैं, अतः उन्हें आहार लेने की आवश्यकता नहीं होती। संसारी जीव सूक्ष्म शरीर सहित होते हैं, अतः उन्हें आहार की आवश्यकता होती है।
ऋजुगति करने वाले जीव जिस समय में पहला शरीर छोड़ते हैं, उसी समय में दूसरे जन्म में उत्पन्न होकर आहार लेते हैं । किन्तु वक्रगति करने वाले जीवों की दो समय की एक घुमाव वाली, तीन समय की दो घुमाव वाली और चार समय की तीन घुमाव वाली वक्रगति में अनाहारक स्थिति पाई जाती है। दो समय वाली वक्रगति में पहला समय अनाहारक और दूसरा समय आहारक होता है। तीन समय वाली वक्रगति में पहला और दूसरा समय अनाहारक और तीसरा समय आहारक होता है । चार समय वाली वक्रगति में दूसरा और तीसरा समय अनाहारक तथा पहला और चौथा समय आहारक होता है।
७७ - ( सू० १८५) विकलेन्द्रिय
सामान्यतः विकलेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का ही ग्रहण होता है, किन्तु यहाँ एकेन्द्रिय का भी ग्रहण किया गया है। यहां 'विकल' शब्द 'अपूर्ण' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस सूत्र में संज्ञी और असंज्ञी का कथन पूर्वजन्म की अवस्था की प्रधानता से हुआ है। जो असंज्ञी जीव नारक आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं वे अपनी पूर्वावस्था के कारण असंज्ञी कहे जाते हैं। असंज्ञी जीव नारक से व्यन्तर तक के दंडकों में ही उत्पन्न होते हैं, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नहीं होते ।
संज्ञ
दसवें स्थान में संज्ञा के दस प्रकार बतलाए गए हैं। उन संज्ञाओं के कारण सभी जीव संज्ञी होते हैं, किन्तु यहां संज्ञी संज्ञाओं के सम्बन्ध से विवक्षित नहीं है। यहां संज्ञी का अर्थ समनस्क है । इस संज्ञा का सम्बन्ध कालिकोपदेशिकी संज्ञा से है | नंदी सूत्र में तीन प्रकार के संज्ञी निर्दिष्ट हैं-
कालिकोपदेशेन संज्ञी, हेतुवादोपदेशेन संज्ञी, दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी' । प्रस्तुत प्रकरण में कालिकोपदेशेन संज्ञी विवक्षित है । जिस व्यक्ति में ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श प्राप्त होता है, वह कालिकोपदेशेन संज्ञी होता है । कोपदेशिकी संज्ञा के द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान वैकालिक ज्ञान होता है, इसलिए इसकी मूल संज्ञा दीर्घकालिकी है। हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीव इष्ट विषय में प्रवृत्त और अनिष्ट विषय में निवृत्त होते हैं, अतः उनका ज्ञान वर्तमाना
१. नंदी, सूत्र ६१ :
से कि तं सणि सुयं ?
सष्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा
कालिओवरसेणं हे वएसेणं दिट्ठिवाओवसएसेणं ।
२. नंदी, सूत्र ६२ :
Jain Education International
से किं तं कालिओवएसेणं ?
कालिओवएसेणं - जस्स णं अत्थि ईद्दा, अपोहो, मग्गणा, गवसणा, चिन्ता, वीमंसा -- सेणं सण्णीति लब्भइ ।
३. नंदीवृत्ति पत्र १८६ :
इह दीर्घकालिक संज्ञा कालिकीति व्यपदिश्यते आदिपदलोपादुपदेशेनमुपदेशः – कथनमित्यर्थः दीर्घकालिक्या उपदेश: दीर्घकालिक्युपदेशः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org