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________________ ठाणं (स्थान) १२६ वलम्बी होता है । ज्ञान की विशिष्टता के आधार पर दीर्घकालिकी संज्ञा का नाम मनोविज्ञान है' । ७८ (सू० १८६) ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की स्थिति असंख्येय काल की होती है अतः इस आलापक में उन्हें छोड़ा गया है। ७६ अधोवधि (सू० १६३ ) अवधि ज्ञान के ११ द्वार हैं-भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर, बाह्य, देश, सर्व, वृद्धि, हानि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति । इन ग्यारह द्वारों में देश और सर्व दो द्वार हैं। देशावधि का अर्थ है --अवधि ज्ञान द्वारा प्रकाशित वस्तुओं के एक देश (अंश) को जानना । सर्वावधि का अर्थ है-अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित वस्तुओं के सर्व देश (सभी अंशों) को जानना' । प्रज्ञापना (पद ३३) में अवधिज्ञान के ये दो प्रकार मिलते हैं -- देशावधि और सर्वावधि । जयधवला में अवधिज्ञान के तीन भेद किए गए हैं- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि | देशावधि से परमावधि और परमावधि से सर्वावधि का विषय व्यापक होता है | आचार्य अकलंक के अनुसार परमावधि का सर्वावधि में अन्तर्भाव होता है, अतः वह सर्वावधि की तुलना में देशावधि ही है । इस प्रकार अवधि के मुख्य भेद दो ही हैं - देशावधि और सर्वावधि | अधोवधि देशावधि का ही एक नाम है। देशावधि परमावाध व सर्वावधि से अधोवर्ती कोटि का होता है, इसलिए यहां देशraft के लिए अवधि का प्रयोग किया गया है। अधोवधिज्ञान जिसे प्राप्त होता है उसे भी अधोवधि कहा गया है। अवधि का फलितार्थ होता है, नियत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी' । ८० ( सू० १६६ ) वृत्तिकार ने केवलकल्प के तीन अर्थ किए हैं। केवलकल्प- १. अपना कार्य करने की सामर्थ्य के कारण परिपूर्ण । २. केवलज्ञान की भांति परिपूर्ण । ३. सामयिकभाषा ( आगमिक संकेत) के अनुसार केवलकल्प अर्थात् परिपूर्ण' । प्रस्तुत प्रसंग में यह बताया गया है कि अधोवधि पुरुष सम्पूर्ण लोक को जानता देखता है । तत्त्वार्थवार्तिक में भी देशावधि का क्षेत्र जघन्यतः उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्टतः सम्पूर्ण लोक लाया गया है । १. नंदी चूर्ण, पृ० ३४ : साय संज्ञा मनोविज्ञानं । स्थान २ : टि० ७८-८० २. समवायांगवृत्ति पत्र १७४ | ३. कषायपाहुड भाग १, पृ० १७ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक १।२३ : सर्वशब्दस्य साकल्य वाचित्वात् द्रव्यक्षेत्रकाल भावैः सर्वावधेरन्तः पाती परमावधिः, अतः परमावधि रपि देशावधिरेवेति द्विविध एवावधि - सर्वावधि देशावधिश्च । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५७ : Jain Education International यत्कारोऽवधिरस्येति यथावधिः, प्रादिदीर्घत्वं प्राकृत त्वात् परमावधेर्वाऽधोवत्यर्वाधियस्म सोऽधोऽवधिरात्मानियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५७ : केवलः परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यं सामर्थ्यात् कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णः । ७. तत्त्वार्थवार्तिक १।२२: उत्सेधाङ्ग लासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधि जंघन्यः । उत्कृष्टः कृत्स्नलोक: । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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