SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) १३० स्थान २ : टि०८१-८८ प्राण ८१-८६ (सू० २०१-२०६) वृत्तिकार ने 'देशेन शृणोति' और सर्वेण शृणोति' की साधना और विषय के आधार पर अर्थ-योजना की है। जिसका एक कान उपहत होता है वह देशेन सुनता है और जिसके दोनों कान स्वस्थ होते हैं वह सर्वेण सुनता है। शेष इन्द्रियों के लिए निम्न यंत्र द्रष्टव्य हैंदेशेन सर्वण स्पर्शन एक भाग से स्पर्श करना सम्पूर्ण शरीर से स्पर्श करना रसन जीभ के एक भाग से चखना सम्पूर्ण जीभ से चखना एक नथुने से सूंघना दोनों नथुनों से सूंघना चक्षु एक आंख से देखना दोनों आंखों से देखना देशेन और सर्वेण का अर्थ इन्द्रियों की नियतार्थग्रहणशक्ति और संभिन्नश्रोतोलब्धि के आधार पर भी किया जा सकता है। सामान्यतः इन्द्रियों का कार्य निश्चित होता है। सुनना श्रोत्रेन्द्रिय का कार्य है। देखना चक्षु इन्द्रिय का कार्य है। सूंघना घ्राण इन्द्रिय का कार्य है । स्वाद लेना रसनेन्द्रिय का कार्य है और स्पर्श ज्ञान करना स्पर्शनेन्द्रिय का कार्य है। जिसे संभिन्न श्रोतोलब्धि प्राप्त होती है उसके लिए इन्द्रियों की अर्थग्रहण की प्रतिनियतता नहीं रहती। वह एक इन्द्रिय से सब इन्द्रियों का कार्य कर सकता है-आंखों से सुन सकता है, कान से देख सकता है, स्पर्श से सुन सकता है, देख सकता है, सूंघ सकता है, एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का कार्य कर सकता है। आवश्यकणिकार ने लिखा है कि संभिन्न श्रोतोलब्धिसंपन्न व्यक्ति शरीर के एक देश से पांचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर लेता है।' उन्होंने दूसरे स्थान पर यह लिखा है कि संभिन्न श्रोतोलब्धिसंपन्न व्यक्ति शरीर के किसी भी अंगोपांग से सब विषयों को ग्रहण कर सकता है। विषय की दृष्टि से देशेन सुनने का अर्थ है, श्रव्य शब्दों में से अपूर्णशब्दों को सुनना और सर्वेण सुनने का अर्थ है श्रव्यशब्दों में से सब शब्दों को सुनना। यहां दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं, फिर भी सूत्र का प्रतिपाद्य संभिन्न श्रोतोलब्धि की जानकारी देना प्रतीत होता है। ८७ (सू० २०६) मरुत्देव लोकान्तिक देव हैं। ये एक शरीरी और दो शरीरी दोनों प्रकार के होते हैं। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा अथवा अन्तरालगति में सूक्ष्म शरीर की अपेक्षा उनको एक शरीरी कहा गया है। भवधारणीय और उत्तरवैक्रियशरीर की अपेक्षा दो शरीरी कहा गया है। ८८ (सू० २१०) किन्नर, किंपुरुष और गन्धर्व-ये तीन वानमंतर जाति के देव हैं। नागकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार-ये भवनपति देव हैं । वृत्तिकार के अनुसार ये भेद व्यवच्छेद १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५७ : देशेन च शृणोत्येकेन श्रोत्रेणकश्रोत्नोपघाते सति, सर्वेण वाजुपहतधोनेन्द्रियो, यो वा सम्भिन्नश्रोतोऽभिधानलन्धियुक्तः स सर्वेरिन्द्रियः शृणोतीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते । २. आवश्यकचूणि, पृ०६८: संभिन्न सोयरिद्धी नाम जो एगत्तरेण वि सरीर देसेण पंच वि इंदियविसए उवलभति सो संभिन्नसोय त्ति भन्नति । ३. आवश्यकचूणि, पृ०७०: एगेण वा इंदिएणं पंच वि इंदियत्त्थे उवलभति, अहवा सव्वेहि अंगोवंहिं। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ५८ : देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छणोतीति, 'सर्वेणापी' ति सर्वतश्च सामस्त्येन, सर्वानवेत्यर्थः । ५. तत्त्वार्थराजवातिक, ४१२६ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy