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________________ ठाणं (स्थान) BEE स्थान १० : टि० ४४ निमित्त से होने वाला ज्ञान। स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का ज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र इन्द्रिय से होता है। यह इन्द्रिय निमित्त से होनेवाला ज्ञान है। अनिन्द्रिय के निमित्त से होने वाले ज्ञान के दो प्रकार हैं-मामसिक ज्ञान और ओघज्ञान । इन्द्रियज्ञान विभागात्मक होता है, जैसे—नाक से गंध का ज्ञान होता है, चक्ष से रूप का ज्ञान होता है । ओघज्ञान निविभाग होता है। वह किसी इन्द्रिय या मन से नहीं होता। किन्तु वह चेतना की, इन्द्रिय और मन से पृथक्, एक स्वतंत्र क्रिया है। सिद्धसेनगणि ने ओघज्ञान को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है-बल्ली वृक्ष आदि पर आरोहण करती है। उसका यह आरोहण-ज्ञान न स्पर्शन इन्द्रिय से होता है और न मानसिक निमित्त से होता है । वह चेतना के अनावरण की एक स्वतंत्र क्रिया है। वर्तमान के वैज्ञानिक एक छठी इन्द्रिय की कल्पना कर रहे हैं। उसकी तुलना ओघसंज्ञा से की जा सकती है। उनकी कल्पना का विवरण इन शब्दों में है - सामान्यतया यह माना जाता है कि हमारे पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं,-आंख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा । वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि इन पांच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त एक छठी ज्ञानेन्द्रिय भी है। इसी छठी इन्द्रिय को अंग्रेजी में ई-एस-पी' (एक्स्ट्रासेन्सरी पर्सेप्शन) अथवा अतीन्द्रिय अंत: करण कहते हैं। कई वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि प्रकृति ने यह इन्द्रिय बाकी पांचों ज्ञानेन्द्रियों से भी पहले मनुष्य को उसके पूर्वजों को तथा अनेक पशु-पक्षियों को प्रदान की थी। मनुष्य में तो यह शक्ति जब तक ही प्राकृतिक रूप में पाई जाती है, क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसने इसका अभ्यास' त्याग दिया। अनेक पशु-पक्षियों में यह अब भी देखने में आती है। उदाहरण के लिए १. भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी उसका आभास पाकर अपने बिलों, घोंसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं। २. कई मछलियां देख नहीं सकतीं, परन्तु सूक्ष्म विद्युत् धाराओं के जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों से बचकर संचार करती हैं। आधुनिक युग में आदिम जातियों के मनुष्यों में भी यह छठी इन्द्रिय काफी हद तक पायी जाती है। उदाहरण के लिए १. आस्ट्रेलिया के आदिवासियों का कहना है कि वे धुंए के संकेत का प्रयोग तो केवल उद्दिष्ट व्यक्ति का ध्यान खींचने के लिए करते हैं और इसके बाद उन दोनों में विचारों का आदान-प्रदान मानसिक रूप से ही होता है। २. अमरीकी आदिवासियों में तो इस छटी इन्द्रिय के लिए एक विशिष्ट नाम का प्रयोग होता है और वह है शुम्फो।' लोकसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ--विशेष अवबोध क्रिया, ज्ञानोपयोग और विशेष प्रवृत्ति किया है। ओघसंज्ञा के संदर्भ में इसका अर्थ विभागात्मक ज्ञान [इन्द्रियज्ञान और मानसज्ञान] किया जा सकता है। शीलांकसूरी ने आचारांग वृत्ति में लोकसंज्ञा का अर्थ लौकिक मान्यता किया है। किन्तु वह मूलस्पर्शी प्रतीत नहीं होता। १. तत्वार्थभाप्य १।१४ : ननेन्द्रियनिमित्तं स्पर्शनादीनां पञ्चानां सादिषु पञ्चस्वेव स्वविषयेषु । अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्ति रोषज्ञान च। २. तत्त्वार्थसूत्र, भाष्यानुसारिणी टीका ११४, ०७२ . ओघ:-मामान्य अप्रविभक्तरुपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तमा जीवन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपमम एव तस्य ज्ञानस्योत्पत्ती निमित्तं, यथा-वल्लयादीनां नीबाचभिसंगमानं न सननिमित्तं न मनोनिमित्तमिति, तस्मात नव मत्यज्ञानावरणक्षयोपशम एव केवलो निमित्तीत्रियते ओघज्ञानस्य। ३. नवभारत टाइम्स (बम्बई) २४ मई १९७०। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७६ । ५. आचारांग वृत्ति पत्र ११ : लोक संज्ञा स्वच्छन्दघटित विकल्परूपा. लौकिकाचरिता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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