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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०:टि ४० ३-४४
भगवान् ने कहा- 'उत्पल ! जो तुम नहीं जानते, वह मैं जानता हूं ! इस स्वप्न का अर्थ यह है कि मैं दो प्रकार के धर्मों की प्ररूपणा करूँगा—सागार धर्म और अनगार धर्म ।'
उत्पल भगवान को वंदन कर चला गला । भगवान् ने वहां पहला वर्षावास बिताया।' बौद्ध साहित्य में भी बुद्ध के पांच स्वप्नों का उल्लेख है। जिस समय तथागत बोधिसत्व ही थे, बुद्धत्व लाभ नहीं हुआ था, तब उन्होंने पाँच महान् स्वप्न देखे
१. यह महापृथ्वी उनकी महान शैय्या बनी हुई थी; पर्वतराज हिमालय उनका तकिया था; पूर्वीय समुद्र बायें हाथ से पश्चिमीय समुद्र दाहिने हाथ से और दक्षिण समुद्र दोनों पांवों से ढंका था।
२. उनकी नाभी से तिरिया नामक तिनकों ने उगकर आकाश को जा छुआ था। ३. कुछ काले सिर तथा श्वेत रंग के जीव पांव से ऊपर की ओर बढ़ते-बढ़ते घुटनों तक ढंककर खड़े हो गए। ४. विभिन्न वर्गों के चार पक्षी चारों दिशाओं से आए और उनके चरणों में गिरकर सभी सफेद वर्ण के हो गए। ५. तथागत गूथ पर्वत पर ऊपर-ऊपर चलते हैं और चलते समय उससे सर्वथा अलिप्त रहते हैं। इनकी फलश्रुति इस प्रकार है१. अनुपम सम्यक् संबोधि को प्राप्त करना। २. आर्य अष्टांगिक मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर, उसे देव-मनुष्यों तक प्रकाशित करना। ३. बहुत से श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ प्राणान्त होने तक तथागत के शरणागत होना।
४. क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र-चारों वर्ण वाले तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म-विनय के अनुसार प्रवजित हो अनुपम विमुक्ति को साक्षात् करेंगे।
५. तथागत चीवर, भिक्षा, शयनासन, ग्लान-प्रत्यय और भैषज्य-परिष्कारों को प्राप्त करने वाले हैं। तथागत इनके प्रति अनासक्त, मूच्छित रहते हैं। वे इनमें बिना उलझे हुए, इनके दुष्परिणामों को देखते हुए मुक्त-प्रज्ञ हो इनका उपभोग करते हैं।
दोनों श्रमण नेताओं द्वारा दृष्ट स्वप्नों में शब्द-साम्य नहीं है, किन्तु उनकी पृष्ठभूमि और तात्पर्य में बहत सामीप्य प्रतीत होता है।
४३. (सू० १०४)
देखें-उत्तरज्झयणाणि २८।१६ का टिप्पण।
४४. (सू० १०५)
प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा के दो अर्थ किए गए हैं—आभोग [संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति ] और मनोविज्ञान । संज्ञा के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रथम आठ प्रकार संवेगात्मक तथा अंतिम दो प्रकार ज्ञानात्मक हैं। इनकी उत्पत्ति बाह्य और आन्तरिक उत्तेजना से होती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के चार-चार कारण चतुर्थ स्थान में निर्दिष्ट है। क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार संज्ञाओं की उत्पत्ति के कारणों का निर्देश भी प्राप्त होता है।'
ओघसंज्ञा-वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सामान्य अवबोध क्रिया, दर्शनोपयोग या सामान्य प्रवृत्ति-किया है। तत्वार्थ भाष्यकार ने ज्ञान के दो निमित्तों का निर्देश किया है। इन्द्रिय के निमित्त से होने वाला ज्ञान और अनिन्द्रिय के
१. आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति, पन २६६, २७० । २. अंगुत्तरनिकाय, द्वितीय भाग, पृष्ठ ४२५-४२७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन ४७८ : संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः मनो
विज्ञानमित्यन्ये । ४. स्थानांग ४१५७६-५८२
५. स्थानांग ४।८०-८३ ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७६ : मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्य
गोचरा सामान्यावबोधक्रियव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियव संज्ञायते ऽनयेति लोकसंज्ञा ।
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