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________________ ठाणं (स्थान) ६६७ यहां अंतिम रात्रि का अर्थ है - रात्री का अवसान, रात्री का अंतिम भाग । 'छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि – इस पाठ को देखने पर यही धारणा बनती है कि छद्मस्थकाल की अंतिम रानी में भगवान् महावीर ने दस स्वप्न देखे । किंतु आवश्यकनियुक्ति आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों तथा व्याख्याग्रन्थों के साथ इस धारणा की संगति नहीं बैठती । वृत्तिकार ने जो अर्थ किया है वह प्रस्तुत पाठ और उत्तरवर्ती ग्रन्थों की संगति बिठाने का प्रयत्न है। एक बार भगवान् महावीर अस्थिग्राम गए। वहां एक वाणव्यन्तर का मंदिर था । उसमें शूलपाणि यक्ष की प्रभावशाली प्रतिमा थी। जो व्यक्ति उस मन्दिर में राविवास करता, वह यक्ष द्वारा मारा जाता था। लोग वहां दिनभर रहते और रात को अन्यत्र चले जाते । वहाँ इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण पुजारी रहता था। वह भी दिन - दिन में मंदिर में रहता और रात में पास वाले गांव में अपने घर चला जाता । भगवान् महावीर वहां आए। बहुत सारे लोग एकत्रित हो गए। भगवान् ने मंदिर में रात्रिवास करने की आज्ञा मांगी । देवकुलिक (पुजारी) ने कहा- मैं आज्ञा नहीं दे सकता । गाँववाले जानें । भगवान् ने गांववालों से पूछा। उन्होंने कहा - 'यहां नहीं रहा जा सकता। आप गाँव में चलें ।' भगवान् ने कहा - 'नहीं, मुझे तुम आज्ञा मात्र दे दो। मैं यहीं रहना चाहता हूं ।' तब गांववालों ने कहा- अच्छा, आप जहां चाहें वहां रहें ।' भगवान् मंदिर के अंदर गए और एक कोने में कायोत्सर्ग मुद्रा कर स्थित हो गए। पुजारी इन्द्रशर्मा मंदिर के अंदर गया। प्रतिमा की पूजा की और भगवान् को संबोधित कर कहा - 'चलो, यहाँ क्यों खड़े हो ? अन्यथा मारे जाओगे ।' भगवान् मौन रहे । व्यन्तर देव ने सोचा- 'देवकुलिक और गांव के लोगों द्वारा कहने पर भी यह भिक्षु यहाँ से नहीं हट रहा है । मैं भी इसे अपने आग्रह का मजा चखाऊँ ।' सांझ की वेला हुई । शूलपाणि ने भीषण अट्टहास कर महावीर को डराना चाहा । लोग इस भयानक शब्द से कांप उठे। उन्होंने सोचा --- ' आज देवार्य मौत के कवल बन जाएँगे ।' स्थान १० : टि० ४२ उसी गांव में एक पावपित्यिक परिव्राजक रहता था। उसका नाम उत्पल था । वह अष्टांग निमित्त का जानकार था। उसने सारा वृत्तान्त सुना । किन्तु रात में वहां जाने का साहस उसने भी नहीं किया । शूलपाणि यक्ष ने जब देखा कि उसका पहला वार खाली गया है, तब उसने हाथी, पिशाच और भयंकर सर्प के रूप धारण कर भगवान् को डराना चाहा। भगवान् अब भी अडोल खड़े थे । यह देख यक्ष का क्रोध उभर आया । उसने एक साथ सात वेदनाएं उदीर्ण कीं । अब भगवान् के सिर, नासा, दांत, कान, आंख, नख और पीठ में भयंकर वेदना होने लगी । एक-एक वेदना भी इतनी तीव्र थी कि उससे मनुष्य मृत्यु पा सकता था। सातों का एक साथ आक्रमण अत्यन्त अनिष्टकारी था किन्तु भगवान् अडोल थे। वे ध्यान की श्रेणी में ऊपर चढ़ रहे थे । यक्ष अत्यन्त श्रान्त हो गया। वह भगवान् के चरणों में गिर पड़ा और बोला- 'भट्टारक ! मुझ पापी को आप क्षमा करें ।' भगवान् अब भी वैसे ही मौन खड़े थे । इस प्रकार उस रात के चारों प्रहरों में भगवान् को अत्यन्त भयानक कष्टों का सामना करना पड़ा। रात के पिछले प्रहर के अंतिम भाग में भगवान् को नींद आ गई। उसमें उन्होंने दस महास्वप्न देखे । स्वप्न देख वे प्रतिबुद्ध हो गए। प्रस्तुत सूत्र में दस स्वप्न तथा उनकी फलश्रुति निर्दिष्ट है। प्रातःकाल हुआ। लोग आए । अष्टांग निमित्तज्ञ उत्पल तथा देवकुलिक इन्द्रशर्मा भी वहाँ आए। वहाँ का सारा वातावरण सुगंधमय था । वे मंदिर में गए। भगवान् को देखा । सब उनके चरणों में गिर पड़े। उत्पल आगे बढ़ा और बोला- 'स्वामिन् ! आपने रात के अंतिम भाग में दस स्वप्न देखे हैं। उनकी फलश्रुति मैं अपने ज्ञान-बल से जानता हूँ । आप स्वयं उसके ज्ञाता हैं । भगवान् ! आपने जो दो मालाएँ देखी थी उस स्वप्न की फलश्रुति मैं नहीं जान पाया। आप कृपा कर बताएं ।' १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७६ प्रतिमराइयंसि ति अन्तिमा - अन्तिम भागरूपा अवयव समदायोपचारात् सा चासो रात्रिका चान्तिमरात्रिका तस्यां रावन इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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