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ठाणं (स्थान)
स्थान १०: टि०४१-४२
प्रत्याख्यान की व्याख्या इस प्रकार मिलती है--कोई गृहस्थ खेत पर गया हुआ है। उसके प्रहर दिन तक का प्रत्याख्यान है। प्रहर दिन बीत गया। भोजन न मिलने पर वह सोचता है—मेरा एक भी क्षण बिना त्याग के न जाए; इसलिए वह प्रत्याख्यान करता है कि-'जब तक यह दीप नहीं बुझेगा या जब तक मैं घर नहीं जाऊंगा या जब तक पसीने की बूंदें नहीं सुखेंगी या जब तक मेरी मुट्ठी नहीं खलेगी तब तक मैं कुछ भी न खाऊँगा और न पीऊंगा।
अभयदेवसूरि ने अध्वा प्रत्याख्यान का अर्थ-पौरुषी आदि कालमान के आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान किया है। वसुनंदि श्रमण ने अध्वान जगत प्रत्याख्यान का अर्थ मार्ग विषयक प्रत्याख्यान किया है । यह अटवी, नदी आदि पार करते समय उपवास आदि करने की पद्धति का सूचक है। सहेतुक प्रत्याख्यान का अर्थ है-उपसर्ग आदि आने पर किया जाने वाला उपवास।
___ इस प्रकार की पूर्ण जानकारी के लिए स्थानांग वृत्ति पत्र ४७२, ४७३, भगवती ७।२, आवश्यक नियुक्ति अध्ययन ६ और मूलाचार षड् आवश्यकाधिकार गाथा १४०, १४१ द्रष्टव्य हैं।
दोनों परंपराओं में कुछ पाठों और अर्थों का भेद सचमुच आश्चर्यजनक है। इसकी पृष्ठभूमि में पाठ-परम्परा का परिवर्तन और अर्थ-परंपरा की विस्मति अन्वेषणीय है । संकेत और अध्वा प्रत्याख्यान के स्थान पर सहेतुक पाठ और उसका अर्थ तथा अध्वानजगत का अर्थ जितना स्वाभाविक और उस समय की परंपरा के निकट लगता है उतना सकेत और अध्वा का नहीं लगता।
४१. (सू० १०२)
भगवती (२५५५५५) में इन सामाचारियों का क्रम यही है, किन्तु उत्तराध्ययन [अध्ययन २६] में उनका क्रम भिन्न है । क्रमभेद के अतिरिक्त एक नाम भेद भी है। निमंत्रणा' के स्थान पर 'अभ्युत्थान' है। किन्तु इनके तात्पर्यार्थ में कोई अन्तर नहीं है। उत्तराध्ययन की नियुक्ति में 'निमंतणा' ही है। अभ्युत्थान का अर्थ है—गुरुपूजा। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ गौरवाह आचार्य, ग्लान, बाल आदि मुनियों के लिए यथोचित आहार, भेषज आदि लाना-किया है।
मूलाराधना तथा मूलाचार में 'आवस्सिया' के स्थान पर 'आसिया' शब्द का प्रयोग मिलता है। अर्थ में कोई भेद नहीं है।
मूलाचार में निमंतणा' के स्थान पर 'सनिमंतणा' का प्रयोग मिलता है। विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि २६:१-७ का टिप्पण।
४२. (सू० १०३)
भगवान् महावीर अपने जन्मस्थान कुण्डपुर से अभिनिष्क्रमण कर ज्ञातखंड उपवन में एकाकी प्रवजित हुए। वह मगशीर्ष कृष्णा दशमी का दिन था। पाठ मास तक विहार कर वे अपने पिता के मित्र के आश्रम में पर्युषणाकल्प के लिए ठहरे। वहां दो महीने रहकर, वे अकाल में ही वहां से निकल कर अस्थिग्राम सन्निवेश के बाहिर शूलपाणि यक्षायतन में ठहरे। वहां शूलपाणि ने उन्हें अनेक कष्ट दिए। तब व्यन्तर देव सिद्धार्थ ने उसे भगवान महावीर का परिचय दिया। शूलपाणि का क्रोध उपशांत हुआ। वह भगवान् की भक्ति करने लगा।
शुलपाणि यक्ष ने भगवान को रात्री के [कुछ समय कम] चारों प्रहर तक परितापित किया। अंतिम रात्री में भगवान् को कुछ नींद आई और तब उन्होंने दस स्वप्न देखे ।
१. उत्तराध्ययन निर्युत्ति गाथा ४८२ : २. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४,५३५ । ३. (क) मूलाराधना गाथा २०५६ ।
(ख) मूलाचार, समाचाराधिकार गाथा १२५ ।
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