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ari (स्थान)
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स्थान १० : टि० ४०
नाम-परिवर्तन के साथ इनका निर्देश मिलता है। उसकी अर्थ- परम्परा भी कुछ भिन्न है। स्थानांग वृत्तिकार अभय देवसूरि अनागत प्रत्याख्यान का प्रयोजन इस प्रकार बतलाया है
पर्युषण पर्व के समय आचार्य, तपस्वी, ग्लान आदि के वैयावृत्य में संलग्न रहने के कारण मैं प्रत्याख्यान तपस्या नहीं कर सकूंगा' - इस प्रयोजन से अनागत तप वर्तमान में किया जाता है ।
मूलाचार के वृत्तिकार वसुनंदि श्रमण के शब्दों में चतुर्दशी आदि को किया जाने वाला तप तयोदशी आदि को कर लिया जाता है ।
इसी प्रकार विशिष्ट प्रयोजन उपस्थित होने पर पर्युषण पर्व आदि में करणीय तप नहीं किया जा सका, उसे बाद में किया जाता है।
सुनंदि श्रमण के शब्दों में चतुर्दशी आदि को किया जाने वाला उपवास प्रतिपदा आदि तिथियों में किया जा सकता है । यह अतिक्रान्त प्रत्याख्यान भी सम्मत रहा है ।
कोटि सहित प्रत्याख्यान की अर्थ-परम्परा दोनों में भिन्न है । अभयदेवसूरि के अनुसार इसका अर्थ है - प्रथम दिन के उपवास की समाप्ति और दूसरे दिन के उपवास के प्रारंभ के बीच समय का व्यवधान न होना ।
वसुनंदि श्रमण के अनुसार यह संकल्प समन्वित प्रत्याख्यान की प्रक्रिया है। किसी मुनि ने संकल्प किया- 'अगले दिन स्वाध्याय - वेला पूर्ण होने पर यदि शक्ति ठीक रही तो मैं उपवास करूंगा, अन्यथा नहीं करूँगा ।'
स्थानांग में प्रत्याख्यान के चौथे प्रकार का नाम 'नियंत्रित' है मूलाचार में चौथे प्रत्याख्यान का नाम 'विखंडित'
है ।
यहाँ नाम-भेद होने पर भी अर्थ -भेद नहीं है । स्थानांग वृत्ति में एक सूचना यह प्राप्त होती है कि यह प्रत्याख्यान वज्रऋषभनाराच संहनन वाले चौदह पूर्वधर, जिनकल्पी और स्थविरों के होता था । वर्तमान में यह व्युच्छिन्न माना जाता है ।
पाँचवें और छठे प्रत्याख्यान का दोनों में अर्थ भेद है । अभयदेवसूरि ने 'आकार' का अर्थ अपवाद और वसुनंदि श्रमण ने उसका अर्थ भेद किया है। अनाभोग ( विस्मृति), सहसाकार ( आकस्मिक ) महत्तर की आज्ञा आदि प्रत्याख्यान के अपवाद होते हैं । अभयदेवसूरि ने बताया है कि साकार प्रत्याख्यान में सभी अपवाद व्यवहार में लाए जा सकते हैं । अनाकार प्रत्याख्यान में ‘महत्तर' की आज्ञा आदि अपवाद व्यवहार में नहीं लाए जा सकते। अनाभोग और सहसाकार की छूट उसमें भी रहती है ।
वसुनंदी श्रमण ने भेद का आशय इस प्रकार स्पष्ट किया है—'अमुक नक्षत्र में अमुक तपस्या करनी है' इस प्रकार नक्षत्र आदि के भेद के आधार पर दीर्घकालीन तपस्याएं करना साकार प्रत्याख्यान है । नक्षत्र आदि का विचार किए विना स्वेच्छा से उपवास आदि करना अनाकार प्रत्याख्यान है। मूलाचार में 'परिणामकृत' के स्थान पर 'परिणामगत' शब्द है । स्थानांग वृत्तिकार ने इसे दत्ति, कवल आदि के उदाहरण से समझाया है और मूलाचार वृत्तिकार ने इसे तपस्या के कालपरिणाम के उदाहरण के द्वारा समझाया है। इनके मूल आशय में कोई भेद प्रतीत नहीं होता ।
स्थानांग में आठवें प्रत्याख्यान का नाम 'निरवशेष' है और मूलाचार में 'अपरिशेष' है । वसुनंदि श्रमण ने इसका अर्थ -- यावज्जीवन संपूर्ण आहार का परित्याग किया है। श्वेताम्बर साहित्य में यावज्जीवन का अर्थ अभिहित नहीं है।
स्थानांग में प्रत्याख्यान का नवां प्रकार है 'संकेतक' और दसवां प्रकार है 'अध्वा' । मूलाचार में नवां प्रत्याख्यान है 'अध्वानगत' और दसवां है 'सहेतुक' ।
नवें और दसवें प्रत्याख्यान के विषय में दोनों परंपराओं में क्रमभेद, नामभेद और अर्थभेद - तीनों हैं। अभयदेवसूरी ने ‘संकेतक' की जो व्याख्या की है, उसके आधार पर यह फलित होता है कि उन्होंने मूलपाठ 'संकेतक' माना है।' संकेत
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७३ : केतनं केतः - चिह्नमङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थगृहादिकं स एव केतकः सह केतकेन सकेतकं ग्रन्थादिसहितमित्यर्थः ।
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