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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ४०
जैसे – कल्पना करो कि इष्ट १६ है, इसको इष्ट १० से गुणा किया - १६ १०- १६० । इसमें पुनः इष्ट १० मिलाया (१६० + १० = १७०) । इसको गच्छ से गुणा किया ( १७० X १६ = २७२० ) इसमें इष्ट की दुगुनी संख्या से भाग दिया २७२० ÷ २०=१३६, यह गच्छ का योगफल है। इस वर्ग को पाटी गणित भी कहा जाता है' ।
७. वर्ग – वर्ग शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'पंक्ति' अथवा 'समुदाय' । परन्तु गणित में इसका अर्थ 'वर्गघात' तथा ‘वर्गक्षेत्त्र' अथवा उसका क्षेत्रफल होता है । पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसकी व्यापक परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'समचतुरस्र' (अर्थात् वर्गाकार क्षेत्र) और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है । दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग है । परन्तु परवर्ती लेखकों ने इसके अर्थ को सीमित करते हुए लिखा है - "दो समान संख्याओं का गुणनफल वर्ग है । वर्ग के अर्थ में कृति शब्द का प्रयोग भी मिलता है, परन्तु बहुत कम । इसे समद्विराशिघात भी कहा जाता है । भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसकी भिन्नभिन्न विधियों का निरूपण किया है।
८. घन - इसका प्रयोग ज्यामितीय और गणितीय - दोनों अर्थों में अर्थात् ठोस घन तथा तीन समान संख्याओं के गुणनफल को सूचित करने में किया गया है। आर्यभट्ट प्रथम का मत है - तीन समान संख्याओं का गुणनफल तथा बारह बरावर कोणों (और भुजाओं) वाला ठोस भी घन है। श्रीधर, महावीर" और भाष्कर द्वितीय' का कथन है कि तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है। घन के अर्थ में 'वृन्द' शब्द का भी यत्र कुत्र प्रयोग मिलता है । इसे 'समत्रिराशिघात' भी कहा जाता है। घन निकालने की विधियों में भी भिन्नता है ।
६. वर्ग वर्ग – वर्ग को वर्ग से गुणा करना । इसे 'समचतुर्घात' भी कहते हैं। पहले मूल संख्या को उसी संख्या से गुणा करना। फिर गुणनफल की संख्या को गुणनफल की संख्या से गुणा करना । जो संख्या आती है उसे वर्ग वर्ग फल कहते हैं । जैसे - ४ x ४ = १६४१६ = २५६ । यह वर्ग वर्ग फल है।
१०. कला गणित में इसे 'क्रकच व्यवहार' कहते हैं। यह पाटीगणित का एक भेद है। इससे लकड़ी की चिराई और पत्थरों की चिनाई आदि का ज्ञान होता है। जैसे- एक काष्ठ मूल में २० अंगुल मोटा है और ऊपर में १६ अंगुल मोटा है। वह १०० अंगुल लम्बा है । उसको चार स्थानों में चीरा तो उसकी हस्तात्मक चिराई क्या होगी ? मूल मोटाई और ऊपर की मोटाई का योग किया - २०१६ = ३६ । इसमें २ का भाग दिया ३६ : २ १८ | इसको लम्बाई से गुणा किया - १०० X १८ = १८०० | फिर इसे चीरने की संख्या से गुणा किया १८०० x ४ = ७२०० । इसमें ५७६ का भाग दिया ७२०० ÷ ५७६ = १२१ / २ । यह हस्तात्मक चिराई है।
स्थानांग वृत्तिकार ने सभी प्रकारों के उदाहरण नहीं दिए हैं। उनका अभिप्राय यह है कि सभी प्रकारों के उदाहरण मन्द बुद्धि वालों के लिए सहजतया ज्ञातव्य नहीं होते अतः उनका उल्लेख नहीं किया गया है।"
सूत्रकृतांग २११ की व्याख्या के प्रारंभ में 'पौंडरीक' शब्द के निक्षेप के अवसर पर वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है, उसमें गणित के दस प्रकारों का उल्लेख किया है"। वहां नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं। केवल एक प्रकार भिन्न रूप से उल्लिखित है। स्थानांग का कल्प शब्द उसमें नहीं है। वहां 'पुद्गल' शब्द का उल्लेख है, जो स्थानांग में प्राप्त नहीं है।
४०. ( सू० १०१ )
प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न परिस्थितियों के निमित्त से होने वाले प्रत्याख्यान का निर्देश किया गया है। मूलाचार में कुछ
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७१ : इदं च पाटीगणितं तं श्रूयते ।
२. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ ।
३. विशतिका, पृष्ठ ५।
४. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १४७ ।
५. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ । ६. त्रिशतिका, पृष्ठ ६ ।
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७. गणित - सारसंग्रह, पृष्ठ १४
८. लीलावती, पृष्ठ ५।
६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७२ ।
१० सूत्रकृतांग २१, वृत्तिपत्र ४ :
परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे य । पुग्गल जावं तावं घणे य घणवस्ग वग्गे य ॥
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