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________________ ठाणं (स्थान) १३५ स्थान २: टि० १०८ अंक संख्या का अर्थ है उतने दिन का तप । इसकी विधि पूर्ववत् है। क्षुद्रिकाप्रस्रवणप्रतिमा, महतीप्रस्रवणप्रतिमा-प्रस्तुत सूत्र में इनका केवल नामोल्लेख है। व्यवहारसूत्र के नवें उद्देशक में इनकी पद्धति निर्दिष्ट है । व्यवहार-भाष्य में इनका विस्तृत विवेचन है। उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से विचार किया गया है। द्रव्यत:-प्रस्रवण पीना। क्षेत्रतः-गांव से बाहर रहना । कालतः-दिन में, अथवा रात्रि में, प्रथम निदाघ-काल में अथवा अन्तिम निदाधकाल में। स्थानांग के वृत्तिकार ने कालतः शरद् और निदाघ दोनों समयों का उल्लेख किया है।' व्यवहारभाष्य में प्रथमशरद् का उल्लेख मिलता है। भावतः-स्वाभाविक और इतर प्रस्रवण । प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि स्वाभाविक को पीता है और इतर को छोड़ता है । कृमि तथा शुक्रयुक्त प्रस्त्रवण इतर प्रस्रवण होता है। स्थानांग वृत्तिकार ने भावतः की व्याख्या में देव आदि का उपसर्ग सहना ग्रहण किया है। यदि यह प्रतिमा खा कर की जाती है तो ६ दिन के उपवास से समाप्त हो जाती है और न खाकर की जाती है तो ७ दिन के उपवास से पूर्ण होती है। इस प्रतिमा की सिद्धि के तीन लाभ बतलाए गए हैं१. सिद्ध होना। २. महद्धिक देव होना। ३. रोगमुक्त होकर शरीर का कनक वर्ण हो जाना। प्रतिमा पालन करने के बाद आहार-ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार निर्दिष्ट हैप्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल। दूसरे सप्ताह में यूष-मांड। तीसरे सप्ताह में विभाग उष्णोदक और थोड़े से मधुर दही के साथ चावल । चतुर्थ सप्ताह में दो भाग उष्णोदक और तीन भाग मधुर दही के साथ चावल । पांचवें सप्ताह में अर्द्ध उष्णोदक और अर्द्ध मधुर दही के साथ चावल । छठे सप्ताह में निभाग उष्णोदक और दो भाग मधुर दही के साथ चावल। सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा सा उष्णोदक मिलाकर उसके साथ चावल । आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा अन्य जूषों के साथ चावल । सात सप्ताह तक रोग के प्रतिकूल न हो वैसा भोजन दही के साथ किया जा सकता है । तत्पश्चात् भोजन का प्रतिबंध समाप्त हो जाता है । महतीप्रस्रवणप्रतिमा की विधि भी क्षुद्रिकाप्रस्रवणप्रतिमा के समान ही है। केवल इतना अन्तर है कि जब वह खा-पीकर स्वीकार की जाती है तब वह ७ दिन के उपवास से पूरी होती है अन्यथा वह आठ दिन के उपवास से। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा-प्रस्तुत सूत्र में इनका केवल नामोल्लेख है। व्यवहार के दसवें उद्देशक में इनकी पद्धति निर्दिष्ट है । व्यवहार भाष्य में इनका विस्तृत विवेचन है। ___ यवमध्यचन्द्रप्रतिमा-इस चन्द्रप्रतिमा में मध्यभाग यव की तरह स्थूल होता है इसलिए इसको यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। इसका भावार्थ है जिसका आदि-अन्त कृश और मध्य स्थूल हो वह प्रतिमा। १. स्थानांगवृत्ति, पन्न ६१: कालत: शरदि निदाधे वा प्रतिपद्यते। २. व्यवहारभाष्य,६।१०७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न ६१: भावतस्तु दिव्याद्युपसर्गसहनमिति । ४. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ६, भाष्यगाथा ८८-१०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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