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________________ ठाणं (स्थान) पावणक्किम, इत्तरिए, आवकहिए, किचिमिच्छा, सोमणं तिए । णक्खत्त-पदं १२६. कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते । १२७. असिसाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते । पावकम्म-पदं १२८. जीवा णं छट्टाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ता fafry वा चिणंति चिणिस्संति वा, तं जहापुढ विकाइ वित्तिए, 'आउकाइयणिव्वत्तिए, काइयव्वित्तिए, areersaraत्तिए, Treasers णिव्यत्तिए, ae कायव्वित्तिए । एवं चिण उवचिण-बंध उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव । Jain Education International ६८२ प्रस्रवणप्रतिक्रमणं, इत्त्वरिकं, घावत्कथिकं यत्किञ्चिद्मिथ्या, स्वापनान्तिकम् । नक्षत्र-पदम् कृत्तिकानक्षत्रं षट्तारं प्रज्ञप्तम् । अश्लेषानक्षत्रं षट्तारं प्रज्ञप्तम् । पापकर्म-पदम् जीवा षट्स्थाननिर्वर्तितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अचैषुः वा चिन्वन्ति वा चेष्यन्ति वा तद्यथा - पृथिवीकायिकनिर्वर्तितान्, अपकायिक निर्वर्तितान् तेजस्कायिकनिर्वर्तितान्, वायुकायिकनिर्वर्तितान्, वनस्पतिकायिक निर्वर्तितान्, त्रसकायनिर्वतितान् । एवम् चय - उपचय-बन्ध उदीर-वेदा: तथा निर्जरा चैव । For Private & Personal Use Only स्थान ६ : सूत्र १२६-१२८ २. प्रस्रवण प्रतिक्रमण मूत्र त्याग करने बाद वापस आकर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । ३. इत्वरिक प्रतिक्रमण - दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना । ४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण - हिंसा आदि से सर्वथा निवृत्त होना अथवा आजीवन अनशन करना । ५. यत्किचित् मिथ्यादुष्कृत प्रतिक्रमणसाधारण अयतना होने पर उसकी विशुद्धि के लिए 'मिच्छामिदुक्कड' इस भाषा में खेद प्रकट करना । ६. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - सोकर उठने के पश्चात् ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रति क्रमण करना । नक्षत्र - पद १२६. कृत्तिका नक्षत्र के छह तारे हैं । १२७. अश्लेषा नक्षत्र के छह तारे हैं। पापकर्म - पद १२८. जीवों ने छह स्थान निर्वर्तित पुद्गलों को पापकर्म के रूप में ग्रहण किया था, करते हैं और करेंगे १. पृथ्वी कायनिर्वर्तित, २. अप्कायनिर्वर्तित, ३. तेजस्कायनिर्वर्तित, ४. वायुकायनिर्वर्तित, ५. वनस्पतिकायनिर्वर्तित, ६. तकाय निर्वर्तित। इसी प्रकार जीवों के षटुकाय निवर्तित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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