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________________ ठाणं (स्थान) १८८ स्थान ३ : सूत्र १८४-१८७ अक्खातपव्वज्जा, संगारपब्वज्जा। आख्यातप्रव्रज्या, सङ्गरप्रव्रज्या। २. आख्यात प्रव्रज्या"-उपदेश से प्राप्त, ३. संगर प्रव्रज्या-परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होकर ली जाने वाली।" णियंठ-पदं निर्ग्रन्थ-पदम् निर्ग्रन्थ-पद १८४. तओ णियंठा णोसण्णोवउत्ता त्रयः निर्ग्रन्थाः नोसंज्ञोपयुक्ताः प्रज्ञप्ताः, १८४. तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ नोसंज्ञा से उपयुक्त पण्णता, तं जहा—पुलाए, णियंठे, तद्यथा-पुलाकः, निर्ग्रन्थः, स्नातकः ।। होते हैं-आहार आदि की चिन्ता से सिणाए। मुक्त होते हैं१. पुलाक-पुलाक लब्धि उपजीवी, २. निर्ग्रन्थ-मोहनीय कर्म से मुक्त, ३. स्नातक-घात्य कर्मों से मुक्त। १८५. तओ णियंठा सण्ण-पोसण्णोवउत्ता त्रयः निर्ग्रन्थाः संज्ञा-नोसंज्ञोपयुक्ताः १८५. तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ संज्ञा और नोसंज्ञा पण्णत्ता, तं जहा—बउसे, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--बकुशः, दोनों से उपयुक्त होते हैं-आहार आदि पडिसेवणाकुसीले, कसायकुसीले। प्रतिषेवणाकुशीलः, कषायकुशीलः । की चिन्ता से युक्त भी होते हैं और मुक्त भी होते हैं-१. बकुश-चरित्र में धब्बे लगाने वाला, २. प्रतिषेवणाकुशीलउत्तर गुणों में दोष लगाने वाला, ३. कपायकुशील-कषाय से दूषित चरित्र वाला। सेहभूमी-पदं शैक्षभूमी-पदम् शैक्षभूमी-पद १८६. तओ सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तं तिस्रः शैक्षभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८६. तीन शैक्ष-भूमियां हैंजहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या। १. उत्कृष्ट, ३. मध्यम, ३. जघन्य। उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा उत्कर्षा षड्मासा, मध्यमा चतुर्मासा, उत्कृष्ट छह महीनों की, मध्यम चार चउमासा, जहण्णा सत्तराईदिया। जघन्या सप्तरात्रिंदिवम् । महीनों की, जघन्य सात दिन-रात की। थेरभूमी-पदं स्थविरभूमी-पदम् स्थविरभूमी-पद १८७. तओ थेरभूमीओ पणत्ताओ, तं तिस्रः स्थविरभूमय: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १८७. तीन स्थविर-भूमियां हैंजहा-जातिथेरे, सुयथेरे, जातिस्थविरः, श्रुतस्थविरः, १. जाति-स्थविर, २. श्रुत-स्थविर, परियायथेरे। पर्यायस्थविरः । ३. पर्याय-स्थविर। साठ वर्षों का हाने पर श्रमण-निर्ग्रन्थ सट्ठिवासजाए समणे णिग्गंथे षष्ठिवर्षजातः श्रमणः निर्ग्रन्थः जातिथेरे, ठाणसमवायधरेणंसमणे जातिस्थविरः, स्थानसमवायधरः श्रमणः जाति-स्थविर होता है। स्थान और समवायांग का धारक णिग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए निर्ग्रन्थः श्रुतस्थविरः, विंशतिवर्षपर्यायः श्रमण-निर्ग्रन्थ श्रुत-स्थविर होता है। णं समणे णिग्गंथे परियायथेरे। श्रमणः निर्ग्रन्थः पर्यायस्थविरः । बीस वर्ष से साधुत्व पालने वाला श्रमणनिर्ग्रन्य पर्याय-स्थविर होता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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