________________
ठाणं (स्थान)
१८७
स्थान ३ : सूत्र १७६-१८३
बोधि-पदं
बोधि-पदम् १७६. तिविधा बोधी पण्णता, तं जहा.- त्रिविधा बोधिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- णाणबोधी, सणबोधी,
ज्ञानबोधिः, दर्शनबोधिः, चरित्रबोधिः। चरित्तबोधी। १७७. तिविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधाः बुद्धाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धा। ज्ञानबुद्धाः, दर्शनबुद्धाः, चरित्रबुद्धाः।
बोधि-पद १७६. बोधि तीन प्रकार की है
१. ज्ञान बोधि, २. दर्शन बोधि,
३. चरित्र वोधि । १७७. बुद्ध तीन प्रकार के होते हैं
१. ज्ञान बुद्ध, २. दर्शन बुद्ध, ३. चरित्र बुद्ध।
मोह-पदं
मोह-पदम् १७८. 'तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधः मोहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
णाणमोहे, सणमोहे, चरित्तमोहे। ज्ञानमोहः, दर्शनमोहः, चरित्रमोहः। १७६. तिविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा- विविधाः मूढाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-
णाणमूढा, दंसणमूढा, ज्ञानमूढाः, दर्शनमूढाः, चरित्रमूढाः। चरित्तमूढा ।
मोह-पद १७८. मोह तीन प्रकार का है—१. ज्ञान मोह,
३. दर्शन मोह, ३. चरित्र मोह।" १७६. मूढ तीन प्रकार के होते हैं- १. ज्ञान मूढ,
२. दर्शन मूढ, ३. चरित्र मूढ ।
पव्वज्जा-पदं प्रव्रज्या-पदम्
प्रव्रज्या-पद १८०. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं त्रिविधा प्रवज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८०. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती है
जहा—इहलोगपडिबद्धा, इहलोकप्रतिबद्धा, परलोकप्रतिबद्धा, १. इहलोक प्रतिबद्धा-ऐहलौकिक सुखों परलोगपडिबद्धा, दुहतो [लोग?] द्वय [लोक ? ] प्रतिबद्धा।
की प्राप्ति के लिए की जाने वाली, पडिबद्धा।
२. परलोक प्रतिबद्धा-पारलौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली, ३. उभयतः प्रतिबद्धा-दोनों के सुखों की
प्राप्ति के लिए की जाने वाली। १८१. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा- विविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८१. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती है
पुरतोपडिबद्धा, मग्गतोपडिबद्धा, पुरतःप्रतिबद्धा, 'मग्गतो' [पृष्ठतः] १. पुरतः प्रतिबद्धा, २. पृष्ठतः प्रतिबद्धा, दुहओपडिबद्धा। प्रतिबद्धा, द्वयप्रतिबद्धा।
३. उभयतः प्रतिबद्धा। १८२. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं त्रिविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८२. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती है
जहा तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, तोदयित्वा, प्लावयित्वा, वाचयित्वा । १. तोदयित्वा-कष्ट देकर दी जाने वाली बुआवइत्ता।
२. प्लावयित्वा-दूसरे स्थान में ले जाकर दी जाने वाली, ३. वाचयित्वा
बातचीत करके दी जाने वाली। १८३. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं त्रिविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथा- १८३. प्रव्रज्या तीन प्रकार की होती हैजहा_ओवातपव्वज्जा, अवपातप्रव्रज्या,
१. अवपात प्रव्रज्या-गुरु सेवा से प्राप्त,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org