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प्रस्तुत स्थान में दो की संख्या से संबद्ध विषय वर्गीकृत हैं। जैन न्याय का तर्क है कि जो सार्थक शब्द होता है, वह प्रतिपक्ष होता है । इसका आधार प्रस्तुत स्थान का पहला सूत्र है। इसमें बताया गया है“जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं"
आमुख
जैनदर्शन द्वैतवादी है। उसके अनुसार चेतन और अचेतन दो मूल तत्त्व हैं। शेष सब इन्हीं के अवान्तर प्रकार हैं। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है । इसलिए वह केवल द्वैतवादी नहीं है। वह अद्वैतवादी भी है। उसकी दृष्टि में केवल द्वैत और केवल अद्वैतवाद की संगति नहीं है । इन दोनों की सापेक्ष संगति है। कोई भी जीव चैतन्य की मर्यादा से मुक्त नहीं है। अतः चैतन्य की दृष्टि से जीव एक है। अचैतन्य की दृष्टि से अजीव भी एक है। जीव या अजीव कोई भी द्रव्य अस्तित्व की मर्यादा से मुक्त नहीं है । अतः अस्तित्व की दृष्टि से द्रव्य एक है। इस संग्रह्नय से अद्वैत सत्य है ।
चेतन में अचैतन्य और अचेतन में चैतन्य का अत्यन्ताभाव है। इस दृष्टि से द्वैत सत्य है ।
पहले स्थान में अद्वैत और प्रस्तुत स्थान में द्वैत का प्रतिपादन है। पहले स्थान में उद्देशक नहीं है। इसमें चार उद्देशक । आकार में भी यह पहले से बड़ा है।
प्रस्तुत स्थान का प्रथम सूत्र सम्पूर्ण स्थान की संक्षिप्त रूपरेखा है। शेष प्रतिपादन उसी का विस्तार है । उदाहरण के लिए दो से तीस सूत्र तक क्रियाओं का वर्गीकरण है। वह प्रथमं सूत्र के आस्रव का विस्तार है। इसी प्रकार अन्य विषयों की योजना की जा सकती है।
मोक्ष के साधनों के विषय में अनेक धारणाएं प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिक विद्या को मोक्ष का साधन मानते हैं, तो कुछ दार्शनिक आचरण को । जैनदर्शन का दृष्टिकोण अनेकान्तवादी है, इसलिए वह न केवल विद्या को मोक्ष का साधन मानता है और न केवल आचरण को । वह दोनों के समन्वितरूप को मोक्ष का साधन मानता है । कुछ विद्वानों का मत है कि जैनदर्शन का अपना कुछ नहीं है। उसने दूसरे दर्शनों के सिद्धान्तों का समन्वय कर अपने दर्शन का प्रसाद खड़ा किया है। जैनदर्शन का आकार-प्रकार देखने पर इस प्रकार का मत फलित होना बहुत कठिन नहीं है। किन्तु यह वस्तु सत्य से परे है । कोई भी दर्शन सर्वात्मना दूसरों का ऋणी होकर अपने अस्तित्व को मौलिकता व महानता प्रदान नहीं कर सकता । जैनदर्शन का जगत् के अध्ययन का अपना मौलिक दृष्टिकोण है। उसका नाम अनेकान्त है। उस दृष्टिकोण के कारण वह विरोधी प्रतीत होने वाली विभिन्न विचारधाराओं का समन्वय कर सकता है, करता है और उसने अतीत में ऐसा किया है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जैनदर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का समन्वय हो सकता है और हुआ है।
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भगवान् महावीर की दृष्टि में सारी समस्याओं का भूल था हिंसा और परिग्रह । उनका दृढ़ अभिमत था कि जो व्यक्ति हिंसा और परिग्रह की वास्तविकता को नहीं जानता, वह न धर्म सुन सकता है, न बोधि को प्राप्त कर सकता है और न सत्य का साक्षात्कार ही कर सकता है ।
हिंसा और परिग्रह का त्याग करने पर ही व्यक्ति सही अर्थ में धर्म सुनता है, बोधि को प्राप्त करता है और सत्य का अनुभव करता है ।
आगम- साहित्य में प्रमाण के दो वर्गीकरण मिलते हैं - एक स्थानांग और दूसरा नंदी का । स्थानांग का वर्गीकरण
१. २।४०
२. २।४१-५१
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३. २।५२-६२
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