________________
ठाणं (स्थान)
५८५
स्थान ५: सूत्र १३२-१३५ १३२. पंचविहा विसोही पण्णत्ता, तं पञ्चविधा विशोधि: प्रज्ञप्ताः , १३२. विशोधि पांच प्रकार की होती हैजहातद्यथा
१. उद्गम की विशोधि, उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, उद्गमविशोधिः, उत्पादनविशोधिः, १. उत्पादन की विशोधि, एसणविसोही, परिकम्मविसोही, एषणाविशोधिः, परिकर्मविशोधिः, ३. एपणा की विशोधि, परिहरणविसोही। परिधानविशोधिः ।
४. परिकर्म की विशोधि, ५. परिहरण की विशोधि।
दुल्लभ-सुलभवोहि-पदं दुर्लभ-सुलभबोधि-पदम् दुर्लभ-सुलभबोधि-पद १३३. पंहि ठाणेहि जीवा दुल्लभबोधि- पञ्चभिः स्थानः जीवाः दुर्लभबोधिकतया १३३. पांच स्थानों से जीव दुर्लभबोधिकत्वकर्म यत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा....
का अर्जन करता है -- अरहताणं अवण्णं वदमाणे, अर्हतां अवर्णं वदन्,
१. अर्हन्तों का अवर्णवाद करता हुआ, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवणं अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अवर्ण वदन्, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता वदमाणे,
हुआ, ३. आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद आयरियउवझायाणं अवगणं आचार्योपाध्याययोः अवर्ण वदन, करता हुआ, ४. चतुर्वर्ण संघ का अवर्णबदमाणे,
वाद करता हुआ, ५. तप और ब्रह्मचर्य के चाउवण्णस्स संघस्स अवणं चतुर्वर्णस्य संघस्य अवर्ण वदन,
विपाक से दिव्य-गति को प्राप्त देवों का वदमाणे,
अवर्णवाद करता हुआ। विवक्क-तव-बंभचेराणं देवाणं विपक्व-तपो-ब्रह्मचर्याणां देवानां अवर्ण अवणं वदमाणे,
वदन्। १३४. पंचहि ठाणेह जीवा सुलभबोधि- पञ्चभिः स्थानः जीवाः सुलभबोधिकतया १३४. पांच स्थानों से जीव सुलभवोधिकत्वकर्म यत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा
का अर्जन करता हैअरहताणं वण्णं बदमाणे, अर्हतां वर्ण वदन्,
१. अर्हन्तों का वर्णवाद–श्लाघा करता •अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स वणं अर्हतप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य वर्ण वदन, हुआ, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद वदमाणे,
करता हुआ, ३. आचार्य-उपाध्याय का आयरियउवज्झायाणं वणं आचार्योपाध्याययोः वर्णं वदन्, वर्णवाद करता हुआ, ४. चतुर्वर्ण संघ का वदमाणे,
चतुर्वर्णस्य संघस्य वर्ण वदन्, वर्णवाद करता हुआ, ५. तप और ब्रह्मचाउवष्णस्स संघस्स वण्णं वदमाणे,
चर्य के विपाक से दिव्य-गति को प्राप्त विवक्क-तव-बंभचेराणं देवाणं विपक्व-तपो-ब्रह्मचर्याणां देवानां वर्ण देवों का वर्णवाद करता हुआ। वण्णं वदमाणे।
वदन् ।
पडिसंलोण-अपडिसंलोण-पदं प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-पदम् प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन-पद १३५. पंच पडिसंलीणा पण्णता, तं पञ्च प्रतिसलीनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- १३५. प्रतिसंलीन पांच हैं
जहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org