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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ६१
शंख-शब्द के माध्यम से यह बात जानी। तब उन्होंने शंखनाद कर उसे यह बताया कि 'हम बहुत दूर आ गए हैं। तुम कुछ मत कहो ।' इस प्रकार शंख-समाचारी के माध्यम से दोनों का मिलन हुआ।
स्थानांग में वासुदेव के क्षेत्रातिक्रमण को आश्चर्य माना है। और ज्ञाताधर्मकथा में दो वासुदेवों के परस्पर मिलन को आश्चर्य माना है ।
६. चन्द्र और सूर्य का विमान सहित पृथ्वी पर आना - एक बार भगवान् महावीर कौशाम्बी नगरी में विराज रहे थे। उस समय दिन के अन्तिम प्रहर में चन्द्र और सूर्य अपने-अपने मूल शाश्वत - विमानों सहित समवसरण में भगवान् महावीर को वंदना करने आए । शाश्वत विमानों सहित आना - एक आश्चर्य है । अन्यथा वे उत्तरवैकिय द्वारा निर्मित
विमानों में आते हैं।'
७. हरिवंश कुल की उत्पत्ति - प्राचीन समय में कौशांबी नगरी में सुमुख नाम का राजा राज्य करता था। एक बार बसंत ऋतु में वह क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में गया। रास्ते में उसने माली वीरक की पत्नी वनमाला को देखा । वह अत्यन्त सुन्दर और रूपवती थी। दोनों एक दूसरे में आसक्त हो गए। राजा उसे एकटक निहारने लगा और वहीं स्तब्ध सा खड़ा हो गया। तब उसके सचिव सुमति ने उसे आगे चलने के लिए कहा। ज्यों-त्यों वह लीला नामक उद्यान में आया और अपनी सारी मनोकामना सचिव के समक्ष रखी। सचिव ने उसे आश्वस्त किया और आगेयिका नामकी परिव्राजिका को वनमाला के पास भेजा। परिव्राजिका वनमाला के पास गई और उसे भी चिन्तामग्न दशा में देखकर उससे सारी बात जान ली । उसने सचिव से आकर कहा- राजा और वनमाला का मिलन प्रातः काल हो जाएगा। सचिव ने राजा से यह बात कही । वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ ।
प्रातःकाल परिव्राजिका वनमाला को लेकर राजा के पास आई। राजा ने वनमाला को अपने महलों में रखा और उसके साथ सुख भोग करने लगा ।
वनमाला को घर में न पाकर उसका पति वीरक ग्रथिल सा इधर-उधर घूमने लगा। एक बार वह महलों के नीचे से गुजर रहा था। उस समय राजा वनमाला के पास बैठा था। उसके कानों में 'हा! वनमाला ! हा! वनमाला ! ' ये शब्द पड़े । उसने सोचा, अहो ! हमने बहुत दुष्कर्म किए हैं। इसके फलस्वरूप हमें नरक प्राप्ति होगी । इस प्रकार वह आत्मनिंदा करने लगा । इतने में ही आकाश में बिजली चमकी और वह महलों पर आ गिरी। राजा-रानी दोनों मर गए ।
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वहां से मरकर दोनों हरिवर्ष क्षेत्र में हरि और हरिणी के नाम से – युगलरूप में उत्पन्न हुए। वे दोनों वहां सुखपूर्वक रहने लगे।
इधर वनमाला का पति वीरक भी मरकर सौधर्म देवलोक में किल्विषिक देव हुआ। उसने अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव देखा और अपने शत्रु हरि और हरिणो को जाना । उसने सोचा -- यदि ये दोनों यहां मरेंगे तो यौगलिक होने के कारण अवश्य ही देवलोक में जायेंगे । अत: मैं इन्हें दूसरे क्षेत्र में रख दूं ताकि वे यहां दुःख भोगें - यह सोचकर उसने दोनों को उठाकर भरतक्षेत्र के चम्पापुरी में ला छोड़ा ।
उस समय चम्पापुरी के राजा चन्द्रकीर्ति की मृत्यु हो गई थी। मंत्री दूसरे राजा की टोह में इधर-उधर घूम रहे थे । उस समय आकाशस्थित देव ने कहा - 'पुरुषो! मैं आपके लिए हरिवर्ष से एक युगल लाया हूं। वह राजा-रानी होने के लिए योग्य हैं। इस युगल को आप लोग कल्पद्रुम के फलों के साथ-साथ पशु और पक्षियों का मांस भी देना ।'
प्रजा ने देव की बात स्वीकार कर हरि को अपना राजा स्वीकार किया। देव ने अपनी शक्ति से उस युगल की आयुःस्थिति कम कर दी तथा उनकी अवगाहना भी केवल सौ धनुष्यमात्र रखी । देव अन्तर्हित हो गया ।
हरि राजा हुआ। उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया। उसके नाम से हरिवंश का प्रचलन हुआ ।
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१. प्रवचनसारोद्धार, पत्र २५७, २५८ ।
२. वही, पत्र २५८ |
३. क - प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र २५८, २५६ ।
ख - वसुदेवहिण्डी, दूसरा भाग, पृष्ठ ३५६, ३५७ ।
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