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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि०६१ ८. चमर का उत्पात-प्राचीन समय में विभेल सन्निवेश में पूरण नाम का एक धनाढ्य गृहपति रहता था। एक बार उसने सोचा-'पूर्वभव में किए हुए तप के प्रभाव से मुझे यह सारा ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है, सम्मान मिला है। अत: भविष्य में और विशेष फल की प्राप्ति के लिए मुझे गृहह्वास छोड़कर विशेष तप करना चाहिए।' उसने अपने संबंधियों से पूछा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकार देकर दाणाम' नामक तापसव्रत स्वीकार कर लिया। उस दिन से वह यावज्जीवन तक दो-दो दिन की तपस्या में संलग्न हो गया। पारने के दिन वह चार पुट वाले लकड़ी के पात्र को लेकर मध्याह्न वेला में भिक्षा के लिए जाता । पात्र के प्रथम पुट में पड़ी भिक्षा वह पथिकों को बांट देता, दूसरे पुट की भिक्षा कौए आदि पक्षियों को खिला देता, तीसरे पुट की भिक्षा मछली आदि जलचरों को खिला देना और चौथे पुट में प्राप्त भिक्षा को स्वयं खाता। इस प्रकार उसने बारह वर्ष तक कठोर तप तपा और अंत में एक माल का अनशन कर चमरचंपा में असुरकुमारों के इंद्ररूप में उत्पन्न हआ। उसने अवधिज्ञान से ऊपर स्थित सौधर्मावतंसक विमान में सौधर्मेन्द्र को देखा। उसका क्रोध प्रबल हो उठा। उसने अपने अनुचर देवों से कहा --'अरे ! यह दुरात्मा कौन है जो मेरे शिर पर बैठा हुआ है ! उन्होंने कहा--स्वामिन् ! यह सौधर्मदेवलोक का इन्द्र है, जिसने अपने पूर्व अजित पुण्यों के प्रभाव से विपुल ऋद्धि और अतुल पराक्रम प्राप्त किया है। इतना सुनते ही चमरेन्द्र का क्रोध और अधिक प्रबल हो गया। उसने उसके साथ युद्ध करने के लिए उत्सुक हो वहां से अपना शस्त्र ले प्रस्थान किया। सभी देवों ने ऐसा न करने के लिए आग्रह किया, परन्तु उसने अपना हठ नहीं छोड़ा।
'वह पराक्रमी है। यदि मैं किसी भी प्रकार से उससे पराजित हो जाऊंगा तो किसकी शरण लंगा' - यह सोचकर चमरेन्द्र सुसुमारपुर में आया। वहाँ भगवान् महावीर प्रतिमा में स्थित थे। वह भगवान् के पास आकर बोला- भगवन् ! मैं आपके प्रभाव से इन्द्र को जीत लूंगा - ऐसा कहकर उसने एक लाख योजन का वैक्रिय रूप बनाया। चारों ओर अपने शस्त्र को घुमाता हुआ, गर्जन करता हुआ, उछलता हुआ, देवों को भयभीत करता हुआ, दर्प से अन्धा होकर सौधर्मेन्द्र की ओर लपका। एक पैर उसने सौधर्मावतंसक विमान की वेदिका पर और दूसरा पैर सुधर्मा (सभा) में रखा। उसने अपने शस्त्र से इन्द्रकील पर तीन बार प्रहार किया और सौधर्मेन्द्र को बुरा-भला कहा।
सौधर्मेन्द्र ने अवधिज्ञान से सारी बात जान ली। उसने चमरेन्द्र पर प्रहार करने के लिए वज्र फेंका। चमरेन्द्र उसको देखने में भी असमर्थ था। वह वहाँ से डर कर भागा । वैक्रिय शरीर का संकोच कर भगवान् के पास आया और दूर से ही'आपकी शरण है, आपकी शरण है' - ऐसा चिल्लाता हुआ, अत्यन्त सूक्ष्म होकर भगवान् के पैरों के बीच में प्रवेश कर गया। शक्र ने सोचा- 'अर्हद् आदि की निश्रा के बिना कोई भी असुर वहाँ नहीं जा सकता' । उसने अवधिज्ञान से सारा पूर्व वृत्तान्त जान लिया। वज्र भगवान् के अत्यन्त निकट आ गया। जब वह केवल चार अंगुल मात्र दूर रहा, तब इन्द्र ने उसका संहरण कर डाला। भगवान् को वंदना कर वह बोला- 'चमर ! भगवान् की कृपा से तुम बच गए । अब तुम मुक्त हो, डरो मत ! इस प्रकार चमर को आश्वासन देकर शक अपने स्थान पर चला गया। शक के चले जाने पर चमर बाहर आया और अपने स्थान की ओर लौट गया।
६. एक सौ आठ सिद्ध-वृत्तिकार ने इसका कोई विवरण नहीं दिया है।
वसुदेवहिण्डी के अनुसार भगवान् ऋषभ अपने ६६ पुत्र तथा आठ पौत्रों के साथ परिनिर्वृत हुए थे। इस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ एक सौ आठ (६६++१) सिद्ध हुए।
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन प्रकार से एक साथ एक सौ आठ सिद्ध होने की बात कही है - १. निर्ग्रन्थ वेश में एक साथ एक सौ आठ (३६।५२) । २. मध्यम अवगाहना में एक साथ एक सौ आठ (३६।५३) । ३. तिरछे लोक में एक साथ एक सौ आठ (३६।५४) । प्रस्तुत सूत्र में जो आश्चर्य माना गया है, वह इसलिए कि भगवान् ऋषभ के समय में उत्कृष्ट अवगाहना थी। उत्कृष्ट
१. प्रवचनसारोद्धार, पत्र २५६, २६० । १. वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृष्ठ १८५ : एगूणपुत्तसएव अट्ठहि य
वत्तुएहिं सह एगसमयेण निव्वुओ।
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