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ठाणं (स्थान)
१०२०
स्थान १० : टि० ६१
अवगाहना में एक साथ केवल दो ही व्यक्ति सिद्ध हो सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र में एक सौ आठ व्यक्ति उत्कृष्ट अवगाहना में मुक्त हुए इसलिए उसे आश्चर्य माना है ।
आवश्यक निर्युक्ति में ऋषभ के दस हजार व्यक्तियों के साथ सिद्ध होने का उल्लेख मिलता है । इसकी आगमिक संदर्भ के साथ कोई संगति नहीं बैठती । वसुदेवहिण्डी के एक प्रसंग के संदर्भ में एक अनुमान किया जा सकता है कि नियुक्तिकार ने संक्षिप्त और सापेक्ष प्रतिपादन किया, इसलिए वह भ्रामक लगता है।
वसुदेवहिण्डी के अनुसार ऋषभ के दस हजार अनगार [ १०८ कम ] भी उसी नक्षत्र में, बहुत समय बाद तक सिद्ध
हुए हैं।
प्रवचनसारोद्धार में भी वसुदेवहिण्डी को उद्धृत करते हुए इसी तथ्य की पुष्टि की गई हैं ।
इन उद्धरणों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि दस हजार अनगारों के एक ही नक्षत्र में सिद्ध होने के कारण उनका भगवान् ऋषभ के साथ सिद्ध होना बतलाया गया है।
१०. असंयति पूजा - तीर्थंकर सुविधि के निर्वाण के बाद, कुछ समय बीतने पर हुण्डावसर्पिणी के प्रभाव से साधुपरम्परा का विच्छेद हुआ। तब लोगों ने स्थविर श्रावकों को, धर्म के ज्ञाता समझकर धर्म के विषय में पूछा । श्रावकों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म की प्ररूपणा की । लोगों को कुछ समाधान मिला। वे धर्म-कथक स्थविर श्रावकों को दान देने लगे; उनकी पूजा, सत्कार करने लगे। अपनी पूजा और प्रतिष्ठा होते देख धर्म कथक स्थविरों के मन में अहंभाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने नये शास्त्रों की रचना की और भूमि, शय्या, सोना, चांदी, गो, कन्या, हाथी, घोड़े आदि के दान की प्ररूपणा की तथा यह भी घोषित किया कि 'संसार में दान के अधिकारी हम ही हैं, दूसरे नहीं।' लोगों ने उनकी बात मान ली। धर्म के नाम पर पाखण्ड चलने लगा। लोग विप्रतारित हुए। दूसरे धर्म - प्ररूपकों के अभाव में वे गृहस्थ ही धर्मगुरु का विरुद वहन करते हुए अपनी-अपनी इच्छानुसार धर्म की व्याख्या करने लगे। तीर्थंकर शीतल के तीर्थ- प्रवर्तन से पूर्व तक यही स्थिति रही असंयति पूजा का बोल-बाला रहा।
प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार का अभिमत है कि उपरोक्त दस आश्चर्य केवल उपलक्षण मात्र हैं। इनके अतिरिक्त इसी प्रकार की विशेष घटनाएं समय-समय पर होती रही है। दस आश्चर्यों में से कौन-कौन से किसके समय में हुए, इसका विवरण इस प्रकार है -
प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के समय में एक साथ १०८ सिद्ध होना । दसवें तीर्थंकर शीतल के समय में - हरिवंश की उत्पत्ति ।
उन्नीसवें तीर्थंकर मल्ली का स्त्री के रूप में तीर्थंकर होता ।
बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के समय में -- कृष्ण वासुदेव का कपिल वासुदेव के क्षेत्र [ अपरकङ्का ] में जाना अथवा दो वासुदेवों का मिलन |
चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के समय में -
१. गर्भापहरण, २. उपसर्ग, ३. चमरोत्पाद, ४. अभावित परिषद ५. चन्द्र और सूर्य का अवतरण ।
[ ये पांचों क्रमशः हुए हैं ]
नौवें तीर्थंकर सुविधि से सोलहवें तीर्थकर शान्ति के काल तक - असंयति पूजा ।
वृत्तिकार का अभिमत है कि असंयति पूजा प्रायः सभी तीर्थंकरों के समय में होती रही है, किन्तु नौवें तीर्थंकर सुविधि से सोलहवें तीर्थंकर शान्ति के समय तक सर्वथा तीर्थ च्छेदरूप असंयति पूजा हुई है' ।
१. उत्तराध्ययन ३६।५३ ।
२. प्रवचनसारोद्धार पत्र २६० : एतदाश्चर्यमुत्कृष्टावगाहतायामेव
ज्ञातव्यम् ।
३. आवश्यकनिक्ति, गाथा ३११:
दसहि सहस्सेहि उस भो.."
४. वसुदेवहिण्डो, भाग १, पृष्ठ १८५: सेसाण विय अणगाराणं दस सहस्राणि असयऊणगाणि सिद्धाणि तम्मि चेव रिवखे समयंतरेसु बहुसु ।
५. प्रवचनसारोद्धार, पत्र २६० ।
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६. प्रवचनसारोद्वारवृत्ति पत्र २६१ उपलक्षणं चैतान्याश्चर्याणि, अतोऽन्येऽप्येवमादयो भावा अनन्तकालभाविनः आश्चर्यरूपा द्रष्टव्याः ।
७. प्रवचनसारोद्धार, गाथा:
रिस असयं सिद्धं सीयल जिर्णमि हरिवंसो । नेमि जिणेऽवर कंकागमणं कण्णहस्स संपन्नं ॥ इत्थीतित्थ मल्ली या असंजयाण नवमजिणे । अवसेसा अछेचा वीरजिणिदस्स तित्थंनि ॥
८. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र २६१ ।
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