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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ६१
भगवान् महावीर देवानंदा को अपनी माता और स्वयं को उसका आत्मज बतलाते हैं - यह एक विचारणीय प्रश्न हैं । यह हो सकता है कि देवानंदा महावीर के पालन-पोषण में धायमाता के रूप में रही हो और गर्भ-संहरण की पुष्टि के लिए अर्थवादी शैली में उसे माता के रूप में निरूपित किया गया हो। आगम-संकलन काल में इस प्रकार के प्रयत्न की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
३. स्त्रीतीर्थंकर – सामान्यतः तीर्थंकर पुरुष ही होते हैं, ऐसा माना जाता है। इस अवसर्पिणी में मिथिला नगरी के अधिपति कुंभकराज की पुत्री मल्ली उन्नीसवें तीर्थंकर के रूप में विख्यात हुई। उसने तीर्थ का प्रवर्तन किया । दिगम्बर आचार्य इससे सहमत नहीं हैं वे मल्ली को पुरुष मानते हैं ।
४. अभावित परिषद् - बारह वर्ष और साढ़े छह मास तक छद्यस्थ रहने के पश्चात् भगवान् को वैशाख शुक्ला दशमी को जृम्भिका गांव के बहिर्भाग में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उस समय महोत्सव के लिए उपस्थित चतुविध देवनिकाय ने समवसरण की रचना की। भगवान ने देशना दी। किसी के मन में विरति के भाव उत्पन्न नहीं हुए। तीर्थकरों की देशना कभी खाली नहीं जाती । किन्तु यह अभूतपूर्व घटना थी । '
उनकी दूसरी देशना मध्यमपापा में हुई और वहां गौतम आदि गणधर दीक्षित हुए।
५. कृष्ण का अपरकंका नगरी में जाना- धातकीखंड की अपरकंका नगरी में राजा पद्मनाभ राज्य करता था । एक बार नारद ने उससे द्रौपदी की बहुत प्रशंसा की। उसने अपने मित्र देव की सहायता से द्रौपदी का अपहरण कर दिया। इधर नारद ने इस अपहरण का वृत्तान्त कृष्ण वासुदेव को सुनाया। कृष्ण ने लवण समुद्र के अधिपतिदेव सुस्थित की आराधना की और पांचों पांडवों को साथ ले अपरकंका की ओर चल पड़े। वहां पद्मनाभ के साथ घोर संग्राम हुआ। वहां वासुदेव कृष्ण शंखनाद किया। तत्पश्चात् पद्मनाभ को युद्ध में हराकर द्रौपदी को ले द्वारका में आ गए।
उसी धातकीखंड में चंपा नाम की नगरी थी। वहां कपिल वासुदेव रहते थे। एक बार अर्हत् मुनिसुव्रत वहां पुण्यभद्र चैत्य में समवसृत हुए। वासुदेव कपिल धर्मदेशना सुन रहे थे। इतने में ही उन्हें कृष्ण का शंखनाद सुनाई दिया। तब उन्होंने मुनिसुव्रत से शंखनाद के विषय में पूछा। मुनिसुव्रत ने उन्हें कृष्ण संबंधी जानकारी देते हुए कहा – एक ही क्षेत्र में, एक ही समय में दो अरहंत, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव नहीं हुए, नहीं हैं और नहीं होंगे ।
उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तब वासुदेव कपिल वासुदेव कृष्ण को देखने गए। तब तक कृष्ण लवण समुद्र में बहुत दूर तक चले गए थे । वासुदेव कपिल ने कृष्ण के ध्वज के अग्रभाग को देखा और शंखनाद किया। जब कृष्ण ने यह शंखनाद सुना तब उन्होंने इसके प्रत्युत्तर पुनः शंखनाद किया। दो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के दो वासुदेवों का शंखनाद से मिलना हुआ ।
इस प्रसंग में प्रस्तुत सूत्र में वासुदेव कृष्ण का अपरकंका राजधानी में जाने को आश्चर्य माना है। सामान्य विधि यह है कि वासुदेव अपनी क्षेत्र मर्यादा को छोड़कर दूसरे वासुदेव की क्षेत्र मर्यादा में नहीं जाते। भरत क्षेत्र के वासुदेव कृष्ण का धातकीखंड के वासुदेव कपिल की क्षेत्र मर्यादा में जाना एक अनहोनी घटना थी, इसलिए इसे आश्चर्य माना गया है।
ज्ञाताधर्मकथा ( अ० १६ ) के आधार पर दो वासुदेवों का परस्पर मिलन भी एक आश्चर्य है। धातकीखंड के वासुदेव कपिल के पूछने पर मुनिसुव्रत कहते हैं - यह कभी नहीं हुआ, न है और न होगा कि दो अरंहत, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव कभी परस्पर मिलते हों। कपिल ने कहा- 'मैं उनसे मिलना चाहता हूं । मेरे घर आए अतिथि का मैं स्वागत करना चाहता हूं।'
मुनिसुव्रत ने कहा -- एक ही स्थान में दो अर्हत्, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव नहीं होते । यदि कारणवश एक दूसरे की सीमा में आ जाते हैं तो वे कभी मिलते नहीं। किंतु कपिल का मन कुतूहल से भरा था। वह कृष्ण को देखने समुद्रतट पर गया और समुद्र के मध्य जाते हुए कृष्ण के वाहन की ध्वजा को देखा। तब कपिल ने शंखनाद किया। संख-शब्द से कृष्ण को यह स्पष्टतया जताया कि मैं कपिल वासुदेव तुम्हें देखने के लिए उत्कंठिन हूं अतः पुनः लौट आओ।' कृष्ण ने
१. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ५३६ अवचूर्णि प्रथमभाग पृ० २६६ ।
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