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________________ ठाणं ( (स्थान) सरीर-पदं ६२५. रइयाणं चाणणिव्वत्तिते सरीरे पण्णत्ते, तं जहा - कोहवित्तिए, 'माणणिव्वत्तिए, मायाणिव्वत्तिए, लोभ णिव्वत्तिए । ६२३. रइयाणं चह ठाणेहिं सरीरुपपत्ती सिया, तं जहाकोहेणं, माणेणं, माया, लोभेणं । क्रोधेन, मानेन, मायया, लोभेन । ६२४. एवं जाव वैमाणियाणं । एवम् - यावत् वैमानिकानाम् । नैरयिकाणां प्रज्ञप्तम्, तद्यथा क्रोधनिर्वर्तितं, माननिर्वर्तितं मायानिर्वर्तितं, लोभ निर्वर्तितम् । एवम् - यावत् वैमानिकानाम् । ६२६. एवं — जाव वैमाणियाणं । आउ-बंध-पदं ६२८. चहि ठाणेहिं जीवा गेरइया - उत्ताए कम्मं पति तं जहामहारंभताए, महापरिग्गहयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं । ४७६ ६२६. चउहि ठाणेह जीवा तिरिक्ख जोणिय [ आउय ? ] त्ताए कम्मं पगति, तं जहा - माइल्लताए, णिय डिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं । धम्म-दार पदं धर्म-द्वार-पदम् ५२७. चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं चत्वारि धर्मद्वाराणि जहा तद्यथा— खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । क्षान्तिः, मुक्तिः, आर्जवं मार्दवम् । Jain Education International शरीर-पदम् शरीर - पद नैरयिकाणां चतुभिः स्थानैः शरीरोत्पत्तिः ६२३. चार कारणों से नैरयिकों के शरीर की स्यात्, तद्यथा— उत्पति होती है १. क्रोध से, ३. माया से, ६२४. इसी प्रकार सभी दण्डकों के चार कारणों से शरीर की उत्पत्ति होती है। चतुः स्थाननिर्वर्तितं शरीरं ६२५. नैरयिकों के शरीर चार कारणों से निर्वत्र्तत निष्पन्न होते हैं १. क्रोध निर्वर्तित, २. मान निर्वर्तित, ३. माया निर्वर्तित, ४. लोभ निर्वत्तित । स्थान ४ : सूत्र ६२३-६२६ चतुभिः स्थानः जीवाः तिर्यग्योनिक ( आयुष्क ? ) तथा कर्म प्रकुर्वन्ति, २. मान से, ४. लोभ से । धर्म-द्वार पद प्रज्ञप्तानि, ६२७. धर्म के द्वार चार हैं १. क्षान्ति, २. मुक्ति, ३. आर्जव, ४. मार्दव | तद्यथा— मायितया, निकृतिमत्तया, अलीकवचनेन, कूटतुलाकूटमानेन । आयुर्बन्ध-पदम् आयुर्बन्ध-पद अर्जन करता है चतुभिः स्थानैः जीवाः नैरयिकायुष्कतया ६२८. चार स्थानों से जीव नरक योग्य कर्म का कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा— महारम्भतया, महापरिग्रहतया, पञ्चेन्द्रियवधेन, कुणिमाहारेण । For Private & Personal Use Only ६२६. इसी प्रकार सभी दण्डकों के शरीर चार कारणों से निर्वर्तित होते हैं। १. महारम्भ से २. महापरिग्रह से ३. पंचेन्द्रिय वध से अमर्यादित हिंसा से, अमर्यादित संग्रह से, ४. कुणापाहार-मांस भक्षण से । ६२९. चार स्थानों से जीव तिर्यकयोनि के योग्य कर्म का अर्जन करता है १. माया - मानसिक कुटिलता से, २. निकृत — ठगाई से, ३. असत्यवचन से, ४. कूट तोल- माप से । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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