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________________ ठाणं (स्थान) ४८५ स्थान ४: टि०१ इधर ब्राह्मण सोमिल यज्ञ के लिए लकड़ी लाने के लिए नगर के बाहर गया हुआ था। घर लौटते-लौटते संध्या हो चुकी थी। लोगों का आवगमन अवरुद्ध हो गया था। उसने श्मशान में कायोत्सर्ग में स्थित मुनि गजसुकुमाल को देखा। देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया। उसने सोचा- 'अरे! यही वह गजसुकुमाल है, जो मेरी प्यारी पुत्री को छोड़कर प्रवजित हो गया है। अच्छा है, मैं इसका बदला लूं।' उसने चारों ओर देखा और गीली मिट्टी से गजसुकुमाल के मस्तक पर एक पाल बांध दी। उसने एक कवेलू में दहकते अंगारे लिए और उनको मुनि के मस्तक पर पाल के बीच रख दिए। उसका मन भय से आक्रान्त हो गया। वह वहां से तेजी से चलकर घर आ गया। मुनि गजसुकुमाल का कोमल मस्तक सीझने लगा। अपार वेदना हुई। वेदना को समभाव से सहन करते हुए मुनि शुभ अध्यवसायों में लीन हो गए। घातिकर्मों का नाश हुआ। कैवल्य की प्राप्ति हुई और क्षण-भर में वे सिद्ध हो गए। इस प्रकार अत्यन्त स्वल्प पर्याय-काल में ही वे मुक्त हो गए। सनत्कुमार-हस्तिनागपुर के राजा अश्वसेन ने अपने पुत्र सनत्कुमार को राज्य-भार देकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। सनत्कुमार राज्य का परिपालन करने लगे। चौदह रत्न और नौ निधियां उत्पन्न हुई। वे चौथे चक्रवर्ती के रूप में विख्यात हुए। वे कुरुवंश के थे। एक बार इन्द्र ने इनके रूप की प्रशंसा की। दो देव ब्राह्मण वेष में हस्तिनागपुर आए और चक्री को मनुष्य के शरीर की असारता का बोध कराया। चक्री सनत्कुमार ने अपने शरीर का वैवर्ण्य देखा और सोचा---'संसार अनित्य है, संसार असार है। रूप और लावण्य क्षणस्थायी हैं।' उन्होंने प्रव्रज्या स्वीकार करने का दृढ़ निश्चय किया। ब्राह्मण वेषधारी दोनों देवों ने कहा---'धीर ! आपने बहुत ही सुन्दर निश्चय किया है। आप अपने पूर्वजों (भरत आदि) का अनुसरण करने के लिए उद्यत हैं। धन्य हैं आप।' वे दोनों देव वहां से चले गए। __ चक्रवर्ती सनत्कुमार अपने पुत्र को राज्य-भार सौंपकर स्वयं आचार्य बिरत के पास प्रवजित हो गए। सारे रत्न, सभी नरेन्द्र, सेना और नौ निधियां-छह मास तक चक्रवर्ती मुनि के पीछे-पीछे चलते रहे, किन्तु मुनि सनत्कुमार ने उन्हें नहीं देखा। ___ आज उनके दो दिन के उपवास का पारण था। वे भिक्षा लेने गए। एक गृहस्थ ने उन्हें बकरी की छाछ दी। उसे वे पी गए। पुनः दूसरे दिन उन्होंने दो दिन का उपवास कर लिया। इस प्रकार तपस्या चलती रही और पारणे में प्रान्त और नीरस आहार लेते रहे। उनके शरीर का सन्तुलन बिगड़ गया और वह सात रोगों से आक्रान्त हो गया—खुजली, ज्वर, खांसी, श्वास, स्वरभंग, अक्षिवेदना, उदरव्यथा। ये सातों रोग उन्हें अत्यन्त व्यथित करने लगे। किन्तु समतासेवी मुनि ने सात सौ वर्षों तक उन्हें सहा । तपस्या चलती रही। इस प्रकार उग्र तप के फलस्वरूप उन्हें पांच लब्धियां प्राप्त हुई—आमपौषधि, श्वेलौषधि, विपुटुऔषधि, जल्लौषधि और सवौं षधि। इतनी लब्धियां प्राप्त होने पर भी मुनि ने उनका उपयोग अपनी व्याधियों का शमन करने के लिए नहीं किया। एक बार इन्द्र ने अपनी सभा में सनत्कुमार की सहनशक्ति की प्रशंसा की। दो देव उसकी परीक्षा करने आए और बोले---'भंते ! हम आपके शरीर की चिकित्सा करना चाहते हैं।' मुनि मौन रहे। तब उन्होंने पुनः अपनी बात दोहराई। अब भी मुनि मौन ही रहे। उनके बार-बार कहने पर मुनि ने कहा-'क्या आप शरीर की व्याधि के चिकित्सक हैं अथवा कर्म की व्याधि के ?' दोनों ने कहा---'हम शरीर की चिकित्सा करने वाले वैद्य हैं।' तब मुनि सनत्कुमार ने अपनी अंगुली पर अपना थूक लगाया। अंगुली सोने की तरह चमकने लगी। मुनि ने कहा- 'मैं शारीरिक रोगों की चिकित्सा करने में समर्थ है। यदि मेरे में सहनशक्ति नहीं होती तो मैं वैसा कर लेता। यदि आप संचित कर्म की व्याधि को मिटाने में समर्थ हैं तो वैसा प्रयत्न करें।' दोनों देव आश्चर्यचकित रह गए। वे अपने मूल स्वरूप में आकर बोले -'भगवन् ! कर्म की व्याधि को मिटाने में आप ही समर्थ हैं । हम तो आपकी परीक्षा करने यहां आए थे। वे वन्दन कर अपने स्थान की ओर लौट गए। १. आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, पत्र ३५७, ३५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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