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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०१
अशोभित क्यों लग रही है ? दिन में चन्द्रमा को ज्योत्स्ना जैसे फीकी पड़ जाती है, वैसे ही यह अंगुली भी शोभाहीन क्यों है ?' उन्हें भूमि पर पड़ी अंगूठी दीखी और जान लिया कि इसके बिना यह अंगुली शोभाहीन हो गई है। उन्होंने सोचा'क्या शरीर के दूसरे-दूसरे अवयव भी आभूषणों के बिना शोभाहीन हो जाते हैं ?' अब वे एक-एक कर सारे आभूषण उतारने लगे। सारा शरीर शोभाहीन हो गया। शरीर और पौद्गलिक वस्तुओं की असारता का चिन्तन आगे बढ़ा। शुभ अध्यवसायों से घातिकर्मचतुष्टय नष्ट हुआ। उनके अन्तःकरण में संयम का विकास हुआ और वे केवली हो गए। वे कठोर तपस्या किए बिना ही निर्वाण को प्राप्त हुए।
गजसृकुमाल-द्वारवती नगरी में वासुदेव कृष्ण राज्य करते थे। उनकी माता का नाम देवकी था । देवकी एक बार अत्यन्त उदासीन होकर बैठी थी। कृष्ण चरण-वंदन के लिए आए और माता को चिन्तातुर देख उसका कारण पूछा।
देवकी ने कहा---'वत्स ! मैं अधन्य हूं । मैंने एक भी बालक को अपनी गोद में क्रीडारत नहीं देखा।'
कृष्ण ने कहा---'मां ! चिन्ता मत करो। मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा कि मेरे एक भाई हो।' इस प्रकार मां को आश्वासन दे कृष्ण पौषधशाला में गए और तीन दिन का उपवास कर हरिणगमेषी देव की आराधना की। देव प्रत्यक्ष हुआ और बोला-'तुम्हें एक सहोदर की प्राप्ति होगी।' कृष्ण अपनी मां के पास आए और सारी बात उन्हें बताई। देवकी बहुत प्रसन्न हुई।
एक बार देवकी ने स्वप्न में हाथी देखा। वह गर्भवती हुई और पूरे नौ मास और साढ़े आठ दिन बीतने पर उसने एक बालक का प्रसव किया। बारहवें दिन उसका नामकरण किया। स्वप्न में गज के दर्शन होने के कारण उसका नाम 'गजसुकुमाल' रखा।
उसी नगर में सोमिल ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री और पुत्री का नाम सोमा था।
एक बार भगवान् अरिष्टनेमि वहां समवसृत हुए। वासुदेव कृष्ण अपनी समस्त ऋद्धि से सज्जित होकर गजसुकुमाल को साथ ले भगवान के दर्शन करने गए। मार्ग में उन्होंने अत्यन्त सुन्दर कुमारी को देखा और उसके माता-पिता के विषय में जानकारी प्राप्त कर अपने कौटुम्बिक पुरुषों से कहा- 'जाओ, सोमिल से कहकर इस सोमा कुमारी को अपने अन्तःपुर में ले आओ। यह गजसुकुमाल की पहली पत्नी होगी।'
कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया। सोमा कुमारी को राजा के अन्तःपुर में रख दिया।
वासुदेव कृष्ण सहस्राम्रवन में समवसृत भगवान् अरिष्टनेमि की पर्युपासना कर घर लौटे। गजसुकुमाल धर्मप्रवचन सुनकर प्रतिबुद्ध हुए। उन्होंने भगवान से पूछा---'भगवन् ! मैं माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रवजित होना चाहता हूं।' - भगवान् ने कहा- 'जैसी इच्छा हो।'
गजसुकुमाल भगवान् की पर्युपासना कर घर आए। माता-पिता को प्रणाम कर बोले-'मैंने भगवान् के पास धर्म सुना है। वह मुझे रुचिकर लगा। मेरी इच्छा है कि मैं प्रवजित हो जाऊं।' देवकी को यह सुनते ही मूर्छा आ गई और वह धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी। आश्वस्त होने पर उसने कहा- 'वत्स ! तुम मेरे एकमात्र आश्वासन हो। मैं तुम्हारा वियोग क्षण-भर के लिए भी नहीं सह सकूँगी। तुम विवाह कर, सुखपूर्वक रहो।' उसने अनेक प्रकार से गजसुकुमाल को समझाया परन्तु उन्होंने अपने आग्रह को नहीं छोड़ा।
कृष्ण को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ, तब वे तत्काल वहां आए। गजसुकुमाल का आलिंगन कर, अपनी गोद में बिठाकर बोले-भ्रात ! तुम मेरे छोटे भाई हो। प्रव्रज्या की बात छोड़ दो। मैं तुम्हें इस द्वारवती नगरी का राजा बनाऊंगा, तुम्हारा राज्याभिषेक सम्पन्न करूंगा।' गजसुकुमाल ने कृष्ण की बात पर ध्यान नहीं दिया।
अभिनिष्क्रमण समारोह के पश्चात् कुमार गजसुकुमाल भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित हो गए। उसी दिन अपरान्ह में वे भगवान् के पास आए और बोले-भंते ! आज ही मैं श्मशान में एक रात्रि की महाप्रतिमा स्वीकार करना चाहता हूं। आप आज्ञा दें।
भगवान् ने कहा..... 'अहासुहं देवाणुप्पिया! --देवानुप्रिय ! जैसी इच्छा हो वैसा करो।'
भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर मुनि गजसुकुमाल श्मशान में गए; स्थंडिल का प्रतिलेखन किया और दोनों पैरों को सटाकर, ईषद् अवनत होकर एक रात्रि की महाप्रतिमा में स्थित हो गए।
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