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टिप्पणियाँ
स्थान- ४
१ अन्तक्रिया (सू०
मृत्यु-काल में मनुष्य का स्थूलशरीर छूट जाता है। सूक्ष्मशरीर - तेजस और कार्मण उसके साथ लगे रहते हैं । कार्मणशरीर के द्वारा फिर स्थूलशरीर निष्पन्न हो जाता है । अतः स्थूलशरीर के छूट जाने पर भी सूक्ष्मशरीर की सत्ता में जन्म मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। उसका अन्त सूक्ष्मशरीर का विसर्जन होने पर होता है। जो व्यक्ति कर्म-बन्धन को सर्वथा क्षीण कर देता है, उसके सूक्ष्मशरीर छूट जाते हैं। उनके छूट जाने का अर्थ है - अन्तक्रिया या जन्म-मरण की परम्परा का अन्त। इस अवस्था में आत्मा शरीर आदि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय हो जाता है ।
२-५ भरत, गजसुकुमाल, सनत्कुमार, माता मरुदेवा (सू० १)
भरत - भगवान् ऋषभ केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद धर्मोपदेश दे रहे थे। भरत भी वहां उपस्थित थे । भगवान् ऋषभ ने कहा – 'इस अवसर्पिणीकाल में मैं पहला तीर्थकर हूं, मेरा पुत्र भरत इसी भव में मोक्ष जाएगा और मेरी मां मरुदेवा सिद्ध होने वालों में प्रथम होंगी।' इस कथन को सुन एक व्यक्ति के मन में विचिकित्सा पैदा हुई। उसने कहा- 'आप पहले तीर्थंकर होंगे तथा मरुदेवा प्रथम सिद्ध होंगी, यह तथ्य समझ में आ सकता है, किन्तु भरत का मोक्षगमन बुद्धिगम्य नहीं होता ।' भरत ने यह सुना । उसने दूसरे दिन उस व्यक्ति को बुला भेजा और कहा -- तेल से लबालब भरे इस कटोरे को लेकर तुम सारी अयोध्या में घूम आओ। यदि एक भी बूंद नीचे गिरेगी तो तुम्हें मार दिया जायेगा ।'
इधर भरत ने सारे नगर में स्थान-स्थान पर नाट्य आदि की व्यवस्था करवा दी। वह व्यक्ति तेल का कटोरा लिए चला । उसे पल-पल मृत्यु के दर्शन हो रहे थे। उसका मन कटोरे में एकाग्र हो गया। सारे शहर में वह घूम आया। तेल का एक बिन्दु भी नीचे नहीं गिरा । भरत ने पूछा- 'भ्रात! शहर में तुमने कुछ देखा ?'
'राजन् ! मुझे मौत के सिवाय कुछ नहीं दीख रहा था।'
'क्या तुमने नृत्य और नाटक नहीं देखे ?'
'नहीं।'
'देखो, थोड़े समय के लिए एक मौत के डर ने तुम्हें कितना एकाग्र और जागरूक बना डाला। मैं मौत की लम्बी परम्परा से परिचित हूं । चक्रवर्तित्व का पालन करता हुआ भी मैं सत्ता, समृद्धि और भोग में आसक्त नहीं हूं ।'
अब भगवान् की बात उस व्यक्ति के गले उतर गई ।
भरत की अनासक्ति अपूर्व थी। उनके कर्म बहुत कम हो चुके थे ।
राज्य का पालन करते-करते कुछ कम छह लाख पूर्व बीत गए थे। एक बार वे अपने मज्जनगृह में आए और शरीर का पूरा मण्डन किया। अपने शरीर की शोभा का निरीक्षण करने के आदर्शगृह में गए। एक सिंहासन पर बैठे और पूर्वाभिमुख होकर कांच में अपना सौन्दर्य देखने लगे। कांच में सारा अंग प्रतिबिम्बित हो रहा था। भरत उसको एकाग्रमन से देख रहे थे और मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे ।
इतने में ही एक अंगुली से अंगूठी भूमि पर गिर पड़ी। भरत को इसका भान नहीं रहा। वे अपने एक-एक अवयव की शोभा निहारते रहे । अचानक उनका ध्यान उस खाली अंगुली पर गया। उन्होंने सोचा- 'अरे! यह क्या ? यह इतनी
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