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________________ ठाणं (स्थान) ४८६ स्थान ४ : टि०६-८ मुनि सनत्कुमार पचास हजार वर्ष तक कुमार और लाख वर्ष तक चक्रवर्ती के रूप में रहकर प्रवजित हुए। वे एक लाख वर्ष तक श्रामण्य का पालन कर दुष्कर तप कर सम्मेदशिखर पर गए। वहां एक शिलातल पर मासिक अनशन किया। अनशन कर मुक्त हो गये। माता मरुदेवी-महाराज ऋषभ प्रवजित हो गए। उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी दिन चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में चक्र की उत्पत्ति हुई। उसके सेवकों ने आकर भरत को बधाई देते हुए केवलज्ञान और चक्र की उत्पत्ति के विषय में बताया। भरत ने सोचा- 'पहले पिता की पूजा करूं या चक्र की।' विचार करते-करते पिता की पूजा का महत्त्व उन्हें प्रतीत हुआ और उन्होंने उसके लिए सामग्री की तैयारी करने का आदेश दे दिया। मरुदेवी ऋषभ की माता थी। उसने भरत की राज्यश्री देखकर सोचा--'मेरे पुत्र ऋषभ के भी ऐसी ही राज्यश्री थी। आज वह भूख और प्यास से पीड़ित होकर नग्न घूम रहा है।' वह मन-ही-मन घुटने लगी। पुत्र का शोक घना हो गया। मन क्लेश से भर गया। वह रोने लगी। भरत उधर से निकला। दादी को रोते देखकर बोला-'मां! तुम मेरे साथ चलो! मैं तुम्हें भगवान ऋषभ की विभूति दिखाऊं।' मरुदेवी हाथी पर बैठकर उनके साथ चली। वे भगवान के समवसरण के निकट आए। भरत ने कहा-'मां ! देख, ऋषभ की ऋद्धि कितनी विपुल है। इस ऋद्धि के समक्ष मेरा ऐश्वर्य एक कोड़ी के समान है।' मरुदेवी ने चारों ओर देखा। सारा वातावरण उसे अनूठा लगा। उसने मन-ही-मन सोचा--'ओह ! मैंने मोह के वशीभूत होकर व्यर्थ ही शोक किया है। भगवान् स्वयं ऐसी विपुल ऋद्धि के स्वामी हैं।' उसके विचार आगे बढ़े। शुभध्यान की श्रेणी में वह आरूढ़ हुई। सारा शरीर रोमांचित हो उठा। उसकी आंखें भगवान् ऋषभ की ओर टकटकी लगाए हुए थीं। उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और क्षण-भर में ही वह मुक्त हो गई। मरुदेवी अत्यन्त क्षीणकर्मा थी। उसके कर्म बहुत अल्प थे। उसने न विधिवत् प्रव्रज्या ही ली और न तप ही तपा। वह अल्प समय में ही मुक्त हो गई। ६-८ (सू०२-४) प्रस्तुत तीन सूत्रों में वृक्ष के उदाहरण से पुरुष की ऊंचाई-निचाई, परिणति और रूप का निरूपण किया गया है। ऊंचाई और निचाई के मानदण्ड अनेक होते हैं। अनुवाद में मनुष्य की ऊंचाई और निचाई को शरीर और गुण के मानदण्ड से समझाया गया है; वह मात्र एक उदाहरण है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या सम्भावित सभी मानदण्डों के आधार पर की जा सकती है । उदाहरणस्वरूप १. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से भी उन्नत होते हैं और ज्ञान से भी उन्नत होते हैं। २. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से उन्नत होते हैं, किन्तु ज्ञान से प्रणत होते हैं। ३. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से प्रणत होते हैं, किन्तु ज्ञान से उन्नत होते हैं। ४. कुछ पुरुष ऐश्वर्य से भी प्रणत होते हैं और ज्ञान से भी प्रणत होते हैं। उन्नत और प्रणत कांपिल्यपुर नाम का नगर था। उसमें ब्रह्म नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम चूलनी था। चूलनी रानी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था ब्रह्मदत्त। पिता की मृत्यु के समय बालक छोटा था। उसे अनेक परिस्थितियों में से गुजरना पड़ा। बड़े होने पर वह चक्रवर्ती बना। वह सुख पूर्वक राज्य का परिपालन करता हुआ विचरण करने लगा। २. अभिधान राजेन्द्र, दूसरा भाग, पृष्ठ ११४१; पांचवां भाग, पृष्ट १३८६। १. उत्तराध्ययन की वृत्ति में बतलाया गया है कि सनत्कुमार तीसरे देवलोक में उत्पन्न हुए। उत्तराध्ययन, सुखबोधावृत्ति, पत्र २४२ तत्थ सिलायले आलोयणाविहाणेण मासिएण भत्तेण कालगतो सणंकुमारे कप्पे उववन्नो । ततो चुतो महाविदेहे सिज्झिहि। For Private & Personal use only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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