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________________ स्थान ६: सूत्र ५-८ ठाणं (स्थान) ८४७ ६. पाणभोयणस्स अइमायमाहा- ६. पानभोजनस्य अतिमात्रमाहारक: रए सया भवति। सदा भवति । ७. पुव्वरयं पुव्वकीलियं सरित्ता ७. पूर्वरतं पूर्वक्रीडितं स्मर्ता भवति। भवति। ८. सद्दाणुवाई रूवाणुवाई सिलो- ८. शब्दानुपाती रूपानुपाती श्लोकागाणुवाई [भवति ?] नुपाती (भवति ? ) । ६. सायासोक्खपडिबद्धे यावि ६. सातसौख्यप्रतिबद्धश्चापि भवति । भवति । ६. वह सदा पान-भोजन का अतिमात्रा में आहार करता है। ७. वह पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोग तथा क्रीड़ाओं का स्मरण करता है। ८. वह शब्द, रूप और श्लोक कीति] का अनुपाती होता है उनमें आसक्त होता है। ६. वह सात और सुख में प्रतिबद्ध होता तित्थगर-पदं तीर्थकर-पदम् ५. अभिणंदणाओ णं अरहओ सुमती अभिनन्दनात् अर्हत: सुमतिः अर्हन् अरहा णहि सागरोवमकोडी- नवसु सागरोपमकोटिशतसहस्रषु सयसहस्सेहि वीइक्कतेहि व्यतिक्रान्तेषु समुत्पन्नः। समुप्पण्णे। तीर्थकर-पद ५. अर्हत् अभिनन्दन के पश्चात् नौ लाख करोड़ सागरोपम काल बीत जाने पर अर्हत् सुमति समुत्पन्न हुए। सब्भावपयत्थ-पदं सद्भावपदार्थ-पदम् सद्भावपदार्थ-पद ६. णव सम्भावपयत्था पण्णत्ता, तं नव सद्भावपदार्थाः प्रज्ञप्ताः, ६. सद्भाव पदार्थ [अनुपचरित या पारजहातयथा मार्थिक वस्तु] नौ हैंजीवा, अजीवा, पुण्णं, पावं, जीवाः, अजीवाः, पुण्यं, पापं, आश्रवः, १. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, आसवो, संवरो, णिज्जरा, बंधो, संवरः, निर्जरा, बन्धः, मोक्षः। ४. पाप, ५. आश्रव, ६. संवर, मोक्खो। ७. निर्जरा, ८. बंध, ६. मोक्ष । जीव-पदं जीव-पदम् जीव-पद ७. णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा नवविधाः संसारसमापन्नकाः जीवा ७. संसारसमापन्नक जीव नौ प्रकार के हैंपण्णत्ता, त जहाप्रज्ञप्ताः, तद्यथा १. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, पुढविकाइया, 'आउकाइया, पथिवीकायिकाः, अपकायिकाः, ३. तेजस्काययिक, ४. वायुकायिक, तेउकाइया, वाउकाइया, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, वणस्सइकाइया, बेइंदिया, वनस्पतिकायिकाः, द्वीन्द्रियाः, ७. वीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय, 'तेइंदिया, चरिदिया, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः।। ६. पञ्चेन्द्रिय। पंचिदिया। गति-आगति-पदं गति-आगति-पदम् गति-आगति-पद ८. पुढविकाइया णवगतिया णव- पृथिवीकायिकाः नवगतिकाः ८. पृथ्वीकायिक जीवों की नौ गति और नो आगतिया पण्णत्ता, तं जहा- नवागतिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा आगति होती है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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