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________________ ठाणं (स्थान) २२० स्थान ३ : सूत्र ३४५-३४६ उपधि-पदं उपधि-पदम् उपधि-पद ३४५. कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ३४५. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां तीन प्रकार के वा तओ वत्थाई धारित्तए वा त्रीणि वस्त्राणि धतुवा परिधातुं वा, वस्त्र धारण कर सकते हैं और काम परिहरित्तए वा, तं जहा- तद्यथा में ले सकते हैं-१. ऊन के, जंगिए, भंगिए, खोमिए। जाङ्गिक, भाषिक, क्षौमिकम्। २. अलसी के, ३. रुई के। ३४६. कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा ३४६. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां तीन प्रकार के वा तओ पायाई धारित्तए वा त्रीणि पात्राणि धत्तुं वा परिधातुं वा, पात्र धारण कर सकते हैं—१. तुम्बा, परिहरित्तए वा, तं जहातद्यथा २. काष्ठ पात्र, ३. मृत् पात्र। लाउयपादे वा, दारुपादे वा, अलाबुपात्रं वा, दारुपात्रं वा, मृत्तिकामट्टियापादे वा। पात्रं वा। ३४७. तिहि ठाणेहि वत्थं धरेज्जा, तं त्रिभिः स्थानः वस्त्रं धरेत्, तद्यथा- ३४७. निग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां तीन कारणों से जहा— हिरिपत्तियं, ह्रीप्रत्ययं, जुगुप्साप्रत्ययं, वस्त्र धारण कर सकते हैंदुगुंछापत्तियं, परीसहवत्तियं। परीषहप्रत्ययम् । १. लज्जा निवारण के लिए, २. जुगुप्सा [घृणा] निवारण के लिए, ३. परीषह निवारण के लिए। आत्मरक्ष-पद आयरक्ख-पदं ३४८. तओ आयरक्खा पण्णत्ता, तं जहाधम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवति, तुसिणीए वा सिया, उद्वित्ता वा आताए एगंतमंतमवक्कमेज्जा। आत्मरक्ष-पदम् त्रयः आत्मरक्षाः प्रज्ञप्ताः , तदयथा- धार्मिक्या प्रतिचोदनया प्रतिचोदिता भवति, तूष्णीको वा स्यात, उत्थाय वा आत्मना एकान्तमन्तं अवक्रामेत् । ३४८. तीन आत्म-रक्षक होते हैं--- १. अकरणीय कार्य में प्रवृत्त व्यक्ति को धार्मिक प्रेरणा से प्रेरित करने वाला, २. प्रेरणा न देने की स्थिति में मौन रहने वाला, ३. मौन और उपेक्षा न करने की स्थिति में वहां से उठकर एकान्त में चले जाने वाला। वियड-दत्ति--पदं विकट-दत्ति-पदम् ३४६. णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स निर्ग्रन्थस्य ग्लायतः कल्प्यन्ते तिस्रः कप्पंति तओ वियडदत्तीओ [दे० विकट] दत्तयः प्रतिग्रहीतुम्, पडिग्गाहित्तते, तं जहा तद्यथा...उत्कर्षा, मध्यमा, जघन्या। उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा । विकट-दत्ति-पद ३४६. ग्लान निर्ग्रन्थ तीन प्रकार की विकट दत्तियां ले सकता है१. उत्कृष्ट-पर्याप्त जल या कलमी चावल की कांजी, २. मध्यम-कई बार किन्तु अपर्याप्त जल या साठी चावल की कांजी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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