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________________ ठाणं (स्थान) २५५ स्थान ३ : सूत्र ५१६-५२३ मरण-पदं मरण-पदम् मरण-पद ५१६. तिबिहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा- त्रिविधं मरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ५१६. मरण तीन प्रकार का होता हैबालमरणे, पंडियमरणे, बालमरणं, पण्डितमरणं, १. बाल-मरण-असंयमी का मरण, बालपंडियमरणे। बालपण्डितमरणं। २. पंडित-मरण-संयमी का मरण, ३. बाल-पंडित-मरण-संयमासंयमी का मरण। ५२०. बालमरण तिविहे पण्णत्ते, तं बालमरणं त्रिविध प्रज्ञप्तम, तदयथा_ ५२०. बाल-मरण तीन प्रकार का होता हैजहा—ठितलेस्से, संकिलिट्ठलेस्से, स्थितलेश्य, संक्लिष्टलेश्य, १. स्थितलेश्य, २. संक्लिष्टलेश्य, पज्जवजातलेस्से। पर्यवजातलेश्यम् । ३. पर्यवजातलेश्य। ५२१. पंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, तं पण्डितमरणं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-५२१. पंडित-मरण तीन प्रकार का होता हैजहा–ठितलेस्से, असं किलिट्ठलेस्से, स्थित लेश्यं, असंक्लिष्टलेश्य, १. स्थितलेश्य-स्थिर विशुद्ध लेश्या पज्जवजातलेस्से। पर्यवजातलेश्यम् । वाला । २. असंक्लिष्टलेश्य, ३. पर्यवजातलेश्य-प्रवर्धमान विशुद्ध लेश्या वाला। ५२२. बालपंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते, बालपण्डितमरणं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, ५२२. बाल-पंडित-मरण तीन प्रकार का होता तं जहा-ठितलेस्से, तद्यथा-स्थितलेश्यं, असंक्लिष्टलेश्य, है-१. स्थितलेश्य-स्थिर लेश्या वाला, असंकिलिट्ठलेस्से, अपर्यवजातलेश्यम्। २. असंक्लिष्टलेश्य, अपज्जवजातलेस्से। ६. अपर्यवजातलेश्य । असद्दहंतस्स पराभव-पदं अश्रद्दधानस्य पराभव-पदम् अश्रद्धावान् का पराभव ५२३. तओ ठाणा अव्ववसितस्स अहिताए त्रीणि स्थानानि अव्यवसितस्य अहिताय ५२३. अव्यवसित (अश्रद्धावान) निम्रन्थ के असुभाए अखमाए अणिस्सेसाए अशुभाय अक्षमाय अनिःश्रेयसाय लिए तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अणाणुगामियत्ताए भवंति तं अनानुगामिकत्वाय भवंति, तद्यथा- अनिःश्रेयस और अनानुगामिता के हेतु जहा होते हैं१. से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ १. स मुण्डो भूत्वा अगाराद् अनगारितां । १. वह मुण्डित तथा अगार से अनगार अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे प्रवजित: नैर्ग्रन्थे प्रवचने शङ्कितः धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन में संकिते कंखिते वितिगिच्छिते काइक्षितः विचिकित्सितः भेदसमापन्न: शकित, कांक्षित, विचिकित्सिक", भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे कलुषसमापन्न: नैर्ग्रन्थं प्रवचनं नो भेदसमापन्न०६ और कलुषसमापन्न"" णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो श्रद्धत्ते नो प्रत्येति नो रोचयति, तं होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा नहीं पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा परीषहाः अभियुज्य-अभियुज्य अभि- करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं अभिमुंजिय-अभिमुंजिय अभिभवंति, भवन्ति, नो स परीषहान् अभियुज्य- करता। उसे परीषह जूझ-जूझ कर णो से परिस्सहे अभिजंजिय- अभियुज्य अभिभवति। अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझअभिमुंजिय अभिभवइ। जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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