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________________ जहा ठाणं (स्थान) ३१० स्थान ४: सूत्र ६३-६७ ६३. रोद्दे झाणे चउन्विहे पण्णत्ते, तं रौद्रं ध्यानं चतुविधं प्रज्ञप्तम्, ६३. रौद्र ध्यान चार प्रकार का होता हैतद्यथा १. हिंसानुबन्धी-जिसमें हिंसा का अनुहिसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, हिंसानुबन्धि, मृषानुबन्धि, स्तन्यानुबन्धि, बन्ध [ सतत प्रवर्तन ]हो, २. मृषानुबन्धीतेणाणुबंधि, सारक्खणाणुबंधि। संरक्षणानुबन्धि । जिसमें मृषा का अनुबंध हो, ३. स्तन्यानुबन्धी-जिसमें चोरी का अनुबन्ध हो, ४. संरक्षणानुबन्धी-जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध हो । ६४. रुखस्स णं झाणस्स चत्तारि रौद्रस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ६४. रौद्र ध्यान के चार लक्षण हैं लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा उत्सन्नदोषः, १. उत्सन्नदोष-प्रायः हिंसा आदि में प्रवृत्त ओसण्णदोसे, बहुदोसे, बहुदोषः, अज्ञानदोषः, आमरणान्तदोषः। रहना, २. बहुदोष-हिंसादि की विविधअण्णाणदोसे, आमरणंतदोसे । प्रवृत्तियों में संलग्न रहना, ३. अज्ञानदोष-अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना, ४. आमरणान्तदोष-मरणान्तक हिंसा आदि करने का अनुताप न होना। ६५. धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे धर्म्य ध्यानं चतुर्विधं चतुष्प्रत्यवतारं ६५. धर्म्य ध्यान चार प्रकार का है, वह चार पण्णत्ते, तं जहा प्रज्ञप्तम्, तद्यथा—आज्ञाविचयं, पदों [स्वरूप, लक्षण, आलम्बन और आणाविजए, अवायविजए, अपायविचयं, विपाकविचयं, अनुप्रेक्षा] में अवतरित होता है। उसके विवागविजए, संठाणविजए। संस्थानविच यम्। चार प्रकार ये हैं-१. आज्ञा-विचयप्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त, २. उपाय-विचय-दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त, ३. विपाक-विचय-कर्मफलों के निर्णय में संलग्न चित्त, ४. संस्थान-विचय–विविध पदार्थों के आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त।२८ ६६. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि धर्म्यस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ६६. धर्म्य ध्यान के चार लक्षण हैंलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा १. आज्ञा-रुचि-प्रवचन में श्रद्धा होना, आणारुई, णिसग्गरुई, आज्ञारुचि:, निसर्गरुचिः, २. निसर्ग-रुचि-सहज ही सत्य में श्रद्धा सुत्तरुई, ओगाढरुई। सूत्ररुचिः, अवगाढरुचिः। होना, ३. सूत्र-रुचि-सूत्र पढ़ने के द्वारा सत्य में श्रद्धा उत्पन्न होना, ४. अवगाढरुचि-विस्तृत पद्धति से सत्य में श्रद्धा होना। ६७. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि धर्म्यस्य ध्यानस्य चत्वारि आलम्बनानि ६७. धर्म्य ध्यान के चार आलम्बन हैंआलंबणा पण्णत्ता, तं जहा.- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वाचना, १. वाचना-पढ़ाना, २. प्रतिप्रच्छनावायणा, पडिपुच्छणा, प्रतिप्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा। शंका निवारण के लिए प्रश्न करना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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