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________________ ठाणं (स्थान) ३०६ स्थान ४ : सूत्र ५६-६२ संघाडी-पदं सङ धाटी-पदम् सङ घाटी-पद ५६. कप्पंति णिग्गंथीणं चत्तारि संघा- कल्पन्ते निर्ग्रन्थीनां चतस्रः सङ घाट्यः ५६. निर्ग्रन्थियां चार संघाटियां रख व ओढ़ डीओ धारित्तए वा परिहरित्तए धत्तु वा परिधातुं वा, तद्यथा सकती हैं-१. दो हाथ वाली संघाटीवा, तं जहा एका द्विहस्तविस्तारा, द्वे त्रिहस्तविस्तारे, उपाश्रय में ओढ़ने के काम आती है, २. तीन एग दुहत्थवित्थारं, एका चतुर्हस्तविस्तारा। हाथ विस्तार वाली एक संघाटी-भिक्षा दो तिहत्थवित्थारं, लाए तब ओढ़ने के काम आती है, ३. तीन एग चउहत्थवित्थारं। हाथ विस्तार वाली दूसरी संघाटीशौचार्थ जाए तब ओढ़ने के काम आती है, ४. चार हाथ विस्तार वाली संघाटीव्याख्यानपरिषदमें ओढ़नेके काम आती है झाण-पदं ध्यान-पदम् ध्यान-पद ६०. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि ध्यानानि प्रज्ञप्तानि, तदयथा- ६०. ध्यान चार प्रकार का होता है अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, आत्तं ध्यानं, रौद्रं ध्यानं, धर्म्य ध्यानं, १. आर्त, २. रौद्र, ३.धर्म्य, ४. शुक्ल।२३ धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। शुक्लं ध्यानम्। ६१. अट्टे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं आतं ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- ६१. आर्त ध्यान चार प्रकार का होता है जहा१. अमणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, १. अमनोज्ञ-संप्रयोग-सम्प्रयुक्तः, तस्य १. अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस तस्स विप्पओग-सति-समण्णागते विप्रयोग-स्मृति-समन्वागतश्चापि भवति [अमनोज्ञ विषय] के वियोग की चिन्ता यावि भवति में लीन हो जाना, २. मणुण्ण-संपओग-संपउत्ते, तस्य २. मनोज्ञ-संप्रयोग-सम्प्रयुक्तः, तस्य २. मनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर विप्पओगसति-समण्णा-गते यावि अविप्रयोग-स्मृति-समन्वागतश्चापि उस [मनोज्ञ विषय के वियोग न होने भवति भवति की चिन्ता में लीन हो जाना, ३. आतंक-संपओग-संपउत्ते, तस्स ३. आतङ्क-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्तः, तस्य ३. आतंक [सद्योघाती रोग] के संयोग विप्पओग-सति-समण्णागते यावि विप्रयोग-स्मृति-समन्वागतश्चापि भवति से संयुक्त होने पर उसके वियोग की भवति चिन्ता में लीन हो जाना, ४. परिजुसित-काम-भोग-संपओग ४. परिजुष्ट-काम-भोग-संप्रयोग-सम्प्र- ४. प्रीति-कर काम-भोग के संयोग से संपउत्ते, तस्स अविप्पओग- युक्तः, तस्य अविप्रयोग-स्मृति-समन्वागत- संयुक्त होने पर उसके वियोग न होने की सति-समण्णागते यावि भवति। श्चापि भवति । चिन्ता में लीन हो जाना। ६२. अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि आतस्य ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि ६२. आर्त ध्यान के चार लक्षण हैंलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा १. आक्रन्द करना, २. शोक करना, कंदणता, सोयणता, क्रन्दनता, शोचनता, ३. आंसू बहाना, ४. विलाप करना। तिप्पणता, परिदेवणता। तेपनता, परिदेवनता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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