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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०६-१५
पूछा, उसने कहा—'मैं रोज ग्राहकों को दूध देती हूं। आज दूध कुछ कम है। आज मैं अपने ग्राहकों को दूध कैसे दे पाऊंगी ? यही मेरी उदासी का कारण है।'
उसने कहा-'इसमें उदास होने जैसी कौन-सी बात है ? इसका उपाय मैं जानता हूं।' उसने बिना पूछे ही अपना रहस्य खोल दिया। कहा—'जितना कम है, उतना पानी मिला दो।'
यह सुनकर लड़की का खून खौल उठा। उसने उस युवक को अपने घर से निकालते हुए कहा-'मैं ऐसे राष्ट्रद्रोही को अपने घर में नहीं रखना चाहती।'
वह ग्वालिन ऐश्वर्य से प्रणत किन्तु शील से सम्पन्न थी।
ऐश्वर्य से प्रणत और शीलाचार से प्रणत एक सन्त अपने शिष्य के साथ बैठे थे। वहां एक व्यक्ति आया और शिष्य को गालियां बकने लगा। शिष्य अपने शील-स्वभाव में लीन था। वह सहता गया। काफी समय बीत गया। उसकी जबान बन्द नहीं हुई तो शिष्य की जबान खुल गई। उसने अपने स्वभाव को छोड़ असुरता को अपना लिया। संत ने जब यह देखा तो वे अपने बोरिये-बिस्तर समेट चलने लगे। शिष्य को गुरु का यह व्यवहार बड़ा अटपटा लगा। उसने पूछा-'आप मुझे इस हालत में छोड़ कहां जा रहे हो?'
संत ने कहा-'मैं तेरे पास था और तेरा साथी था जब तक तू अपने में था। जब तू ने अपने को छोड़ दिया तब मैं तेरा साथ कैसे दे सकता हूं? तुम्हारे पास धन-दौलत नहीं है । तुम ऐश्वर्य से प्रणत हो किन्तु तुम अभी शील से भी प्रणत हो गए...नीचे गिर गये।'
ऐश्वर्य से उन्नत और व्यवहार से उन्नत फ्रांस के बादशाह हेनरी चतुर्थ अपने अंगरक्षकों एवं मंत्रियों के साथ जा रहे थे । मार्ग में एक भिखारी मिला। उसने अपनी टोपी उतार कर अभिवादन किया। बादशाह ने स्वयं भी वैसा ही किया। अंगरक्षक और मंत्रियों को यह सुंदर नहीं लगा। किसी ने बादशाह से पूछा--'आप फ्रांस के बादशाह हैं, वह भिखारी था। उसके अभिवादन का उत्तर आपने टोप उतारकर कैसे दिया?'
बादशाह ने कहा-'वह एक सामान्य व्यक्ति है, किन्तु उसका व्यवहार कितना शिष्ट था। मैं बड़ा हूं तो क्या मेरा व्यवहार उससे अशिष्ट होना चाहिए? बड़ा वही है जिसका व्यवहार सभ्य हो ।
हेनरी चतुर्थ ऐश्वर्य से सम्पन्न तो थे ही, साथ-साथ उनका व्यवहार भी उन्नत था।
ऐश्वर्य से उन्नत और व्यवहार से प्रणत एक भिखारी मांगता हुआ एक सम्पन्न व्यक्ति की दुकान पर आकर बोला--'कुछ दीजिए।' धनी ने उसकी कुछ आवाजें सुनी-अनसुनी कर दी। उसने अपना प्रण नहीं छोड़ा तो उसे हार कर उस ओर देखना पड़ा। देखा, और कहा'आज नहीं, कल आना।' वह आश्वासन लेकर चला गया। दूसरे दिन बड़ी आशा लिए सेठ की दुकान पर खड़े होकर आवाज लगाई। सेठ बोला-'अरे ! आज क्यों आया है ? मैंने तो तुझे कल आने के लिए कहा था।' वह विचारों में खोया हुआ पुनः चल पड़ा। ऐसे सात दिन बीत गये। तब उसे लगा यह सेठ बड़ा धृष्ट है, व्यवहार शून्य है।
जिसे लोक-व्यवहार का बोध नहीं है, वह मुों का शिरोमणि है। इसे अपना दण्ड मिलना चाहिए। मैं छोटा हूं और ये बड़े हैं। कैसे प्रतिशोध । अन्ततः प्रतिगोत्र ने एक आप इंड निकाला। उसने कहीं से रूप-परिवर्तन की विद्या प्राप्त की।
एक दिन वह सेठ का रूप बनाकर आया। सेठ कहीं बाहर गया हुआ था। दूकान की चाभी लड़कों से लेकर दूकान पर आ बैठा। सब कुछ देखा। धन को अपने सामने रखकर लोगों को दान देने लगा। कुछ ही क्षणों में सारा शहर
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