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ठाणं (स्थान)
कृत्रिम पुत्र कहलाता है।
३. दत्त ( दत्रिम ) - गोद लिया हुआ पुत्र ।
४. कृत्रिम - जो गुण-दोष में विचक्षण. पुत्रगुणयुक्त समान जातीय है उसे अपना पुत्र बना लिया जाता है वह
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५. गूढोत्पन्न - जिसका उत्पादक बीज ज्ञात न हो वह गूढोत्पन्न पुत्र कहलाता है ।
६. अपविद्ध माता-पिता के द्वारा त्यक्त अथवा दोनों में से किसी एक के मर जाने पर किसी एक द्वारा व्यक्त पुत्र को पुत्र रूप में स्वीकृत किया जाता है, वह अपविद्ध पुत्र कहलाता है ।
७. कानीन - कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र ।
८. सहोढ —ज्ञात या अज्ञात अवस्था में जिस गर्भवती का विवाह संस्कार किया जाता है, उससे उत्पन्न पुत्र को महोढ कहा जाता है ।
६. श्रीतक — खरीदा हुआ पुत्र ।
१०. पौनर्भव - - पति द्वारा परित्यक्त, विधवा या पुनर्विवाहित स्त्री के पुत्र को पौनर्भव कहा जाता है।
११. स्वयंदत्त --- जिसके माता-पिता मर गए हों, अथवा माता-पिता ने बिना ही कोई कारण जिसका त्याग कर दिया हो, वह पुत्र स्वयंदत्त कहलाता है।
१२. शौद्र ( पारशव) - ब्राह्मण के द्वारा शूद्र स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शौद्र कहा जाता है।
स्थान १० : टि०५६
प्रस्तुत सूत्र में गिनाए गए दस नाम तथा मनुस्मृति के १२ नामों में केवल तीन नाम समान हैं-क्षेत्रज, दत्तक और औरस । प्रस्तुत सूत्र का 'संवद्धित पुत्र' और मनुस्मृति का 'अपविद्धपुत्र' – इन दोनों की व्याख्या समान है । 'दत्तक' की व्याख्या में दोनों एकमत हैं, किन्तु क्षेत्रज और औरस की व्याख्या भिन्न भिन्न है ।
कौटलीय अर्थशास्त्र में भी प्रायः मनुस्मृति के समान ही पुत्रों के प्रकार निर्दिष्ट हैं ।'
१. कौटलीय अर्थशास्त्र ३२६; पृष्ठ १७५ ।
२. ऋग्वेद, १०।१६१।४ : शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्ता
ञ्छतमुवसन्तान् ।
५६ ( सू० १५४)
भारतीय साहित्य में सामान्यतया मनुष्य को शतायु माना गया है। वैदिक ऋषि जिजीविषा के स्वर में कहता हैहम वर्धमान रहते हुए सौ शरद्, सौ हेमन्त और सौ वसन्त तक जीएं। प्रस्तुत सूत्र में शतायु मनुष्य की दस दशाओं का प्रतिपादन है । प्रत्येक दशा दस-दस वर्ष की है। दशवैकालिक नियुक्ति ( गाथा १० ) में भी इन दस दशाओं का निरूपण प्राप्त है । इनकी व्याख्या के लिए हरिभद्रसूरि ने दशवैकालिक की टीका में पूर्व मुनि रचित दस गाथाएं उद्धृत की हैं। वे ही गाथाएं अभयदेवसूरि ने स्थानांग वृत्ति में उद्धृत की हैं। उनके अनुसार दस दशाओं के स्वरूप और कार्य का वर्णन इस प्रकार है
१. बाला -- यह नवजात शिशु की दशा है। इसमें सुख-दुःख की अनुभूति तीव्र नहीं होती ।
२. क्रीड़ा - इसमें खेलकूद की मनोवृत्ति अधिक होती है; कामभोग की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती ।
३. मन्दा – इस दशा में मनुष्य में काम-भोग भोगने का सामर्थ्य हो जाता है। वह विशिष्ट बल बुद्धि के कार्य-प्रदर्शन में मन्द रहता है ।
४. बला- इसमें बल-प्रदर्शन की क्षमता प्राप्त हो जाती है।
५. प्रज्ञा- इसमें मनुष्य स्त्री, धन आदि की चिन्ता करने लगता है और कुटुम्बवृद्धि का विचार करता है।
६. हायनी --- इसमें मनुष्य भोगों से विरक्त होने लगता है और इन्द्रियबल क्षीण हो जाता है ।
७. प्रपञ्चा – इसमें मुंह से थूक गिरने लगता है, कफ बढ़ जाता है और बार-बार खांसना पड़ता है।
८. प्राग्भारा- इसमें चमड़ी में झुर्रियां पड़ जाती हैं और बुढ़ापा घेर लेता है। मनुष्य नारी वल्लभ नहीं रहता ।
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