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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि०५८
इनमें जिस व्यक्ति पर शिष्यों में अनुत्पन्न श्रद्धा उत्पन्न करने और उनकी श्रद्धा विचलित होने पर उन्हें पूनः धर्म में स्थिर करने का दायित्व होता है वह स्थविर कहलाता है।
८. जाति स्थविर–जन्म पर्याय से जो साठ वर्ष का हो। ६. श्रुत स्थविर .....स्थानांग और समवायांग का धारक। १०. पर्याय स्थविर-बीस वर्ष की संयम-पर्याय वाला।
व्यवहार भाष्य में इन तीनों स्थविरों की विशेष जानकारी देते हुए बताया है कि - जाति स्थविरों के प्रति अनुकम्पा; श्रुत स्थविर की पूजा और पर्याय स्थविर की वन्दना करनी चाहिए।
जाति स्थविर को काल और उनकी प्रकृति के अनुकूल आहार, आवश्यकतानुसार उपधि और वसति देनी चाहिए। उनका स्तारक मदु हो और जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना पड़े तो दूसरा व्यक्ति उसे उठाए। उन्हें यथास्थान पानी पिलाए।
श्रत स्थविर को कृतिकर्म और वन्दनक देना चाहिए तथा उनके अभिप्राय के अनुसार चलना चाहिए। जब वे आयें तब उठना, उन्हें बैठने के लिए आसन देना तथा उनका पाद-प्रमार्जन करना, जब वे सामने हों तो उन्हें योग्य आहार ला देना, यदि परोक्ष में हों तो उनकी प्रशंसा और गुणकीर्तन करना तथा उनके सामने ऊंचे आसन पर नहीं बैठना चाहिए।
पर्याय स्थविर चाहे फिर वे गुरु, प्रव्राजक या वाचनाचार्य न भी हों, फिर भी उनके आने पर उठना चाहिए तथा उन्हें वन्दना कर उनके दंड (लाठी) को ग्रहण करना चाहिए।' ५८. (सू० १३७)
प्रस्तुत सूत्र में दस प्रकार के पुत्रों का उल्लेख है। वृत्तिकार ने उनकी व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। उन्होंने आत्मज पुत्र की व्याख्या में आदित्ययशा का उदाहरण दिया है। इससे आत्मज का आशय स्पष्ट होता है।
क्षेत्रज की व्याख्या में उन्होंने पांडवों का उदाहरण दिया है। लोकरूढि के अनुसार युधिष्ठिर आदि कुन्ति के पुत्र नियोग तथा धर्म आदि के द्वारा उत्पन्न माने जाते हैं।
वत्ति में 'उवजाइय' पाठ उद्धृत है। उसकी व्याख्या औपयाचितक और आवपातिक-इन दो रूपों में की है। औपयाचितक का अर्थ वही है जो अनुवाद में दिया हुआ है। आवपातिक का अर्थ होता है-सेवा से प्रसन्न होकर स्वीकार किया हुआ पुत्र ।
- मनुस्मृति में बारह प्रकार के पुत्र बतलाए गए हैं-औरस, क्षेत्रज, दत्त, कृत्रिम, गूढोत्पन्न, अपविद्ध, कानीन, सहोड, क्रीत, पौनर्भव, स्वयं दत्त और शौद्र । इसकी व्याख्या इस प्रकार है
१. औरस--विवाहित पत्नी से उत्पन्न पुत्र ।
५. क्षेत्रज-मृत, नपुंसक अथवा सन्तानावरोधक व्याधि से पीड़ित मनुष्य की स्त्री में, नियोग विधि से कुल के मुख्यों की आज्ञा प्राप्त कर उत्पन्न किया जाने वाला पुत्र ।
बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार पति के मृतक, नपुंसक अथवा रोगी होने पर उसकी पत्नी नियोग-विधि से पुत्र प्राप्त कर सकती थी, यह नियोग दो पुत्रों की प्राप्ति तक ही सम्मत था। विधवा को सम्पत्ति पर अधिकार करने के लिए भी लोग कभी-कभी नियोग स्थापित कर लेते थे, किन्तु यह सम्मत नहीं था, नियोग द्वारा प्राप्त पूत्र वैध व धम्र्य नहीं माना जाता।'
१. स्थानांग सूत्र ३।१८७ में स्थानांग और समवायांग के धारक
को श्रुत स्थविर कहा है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में वृत्तिकार ने 'श्रुतस्थविरा:-समवायाद्यङ्गधारिणः' (वत्तिपत्र '४८६) समवाय आदि अंगों को धारण करनेवाला श्रत स्थविर होता है-ऐसा लिखा है आदि से उन्हें क्या अभिप्रेत था यह स्पष्ट नहीं है।
व्यवहार सूत्र में भी स्थानांग और समवायांगधर को श्रुतस्थविर माना है। (ठाणसमवायधरे सुयथेरे--व्यवहार १०॥ सूत्र १५)
२. व्यवहार १०।१५, भाष्यगाथा ४६-४६; वृत्तिपन्न १०१। ३. स्थानांगवृत्ति पत्र ४८६ : 'उवजाइय' त्ति उपयाचिते-देवता
राधने भव: औपया चितकः, अथवा अवपात:-सेवा सा
प्रयोजनमस्येत्यावपातिक:--सेवक इति हृदयम् । ४. मनुस्मृति ।।१६५-१७८ । ५. बोधायन धर्मसूत्र रा२।१७, २।२।६८-७० । ६. वसिष्ठ धर्मसूत्र १७१५७ । ७. आपस्तम्ब धर्मसूत्र २।१०।२७।४-७ ।
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