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ठाणं (स्थान)
स्थान ४: सूत्र १३०-१३२
संसार-पद
संसार-पदम् १३०. चउन्विहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संसारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, द्रव्यसंसारः, क्षेत्रसंसारः, कालसंसारः, कालसंसारे, भावसंसारे। भावसंसारः।
संसार-पद १३०. संसार चार प्रकार का है
१. द्रव्य संसार-जीव और पुद्गलों का परिभ्रमण, २. क्षेत्र संसार--जीव और पुद्गलों के परिभ्रमण का क्षेत्र, ३. काल संसार-काल का परिवर्तन अथवा काल मर्यादा के अनुसार होने वाला जीवपुद्गलों का परिवर्तन, ४. भाव-संसारपरिभ्रमण की क्रिया।
दिट्टिवाय-पदं दृष्टिवाद-पदम्
दृष्टिवाद-पद १३१. चउविहे दिद्विवाए पण्णत्ते, तं चतुर्विधः दृष्टिवादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १३१. दृष्टिवाद [बारहवां अंग] चार प्रकार जहा
परिकर्म, सूत्राणि, पूर्वगतः, अनुयोगः।। का है---१. परिकर्म-इसे पढ़ने से सूत्र परिकम्म, सुत्ताई,
आदि को समझने की योग्यता आ जाती है, पुव्वगए, अणुजोगे।
२. सूत्र-इसमें सब द्रव्यों और पर्यायों की सूचना मिलती है, ३. पूर्वगत-चतुर्दश पूर्व, ४. अनुयोग-इसमें तीर्थंकर आदि के जीवन-चरित्र प्रतिपादित होते हैं ।
पायच्छित्त-पदं प्रायश्चित्त-पदम्
प्रायश्चित्त-पद १३२. चउ विहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं चतुर्विधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १३२. प्रायश्चित्त चार प्रकार का होता हैजहा
ज्ञानप्रायश्चित्तं, दर्शनप्रायश्चित्तं, १. ज्ञानप्रायश्चित्त-ज्ञान के द्वारा चित्त णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्रप्रायश्चित्तं, व्यक्तकृत्य- की शुद्धि और पाप का नाश होता है, चरित्तपायच्छित्ते, वियत्तकिच्च- प्रायश्चित्तम् ।
इसलिए ज्ञान ही प्रायश्चित है, २. दर्शन पायच्छित्ते।
प्रायश्चित्त-दर्शन के द्वारा चित्त की शुद्धि और पाप का नाश होता है, इसलिए दर्शन ही प्रायश्चित्त है, ३. चरित्र प्रायश्चित्त-चरित्र के द्वारा चित्त की शुद्धि और पाप का नाश होता है, इसलिए चरित्र ही प्रायश्चित्त है, ४. व्यक्त-कृत्यप्रायश्चित्त--गीतार्थ मुनि जागरूकता पूर्वक जो कार्य करता है वह पाप-विशुद्धि कारक होता है, इसलिए वह प्रायश्चित्त है।
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