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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०:टि०४-६
४,५. उपकरण संवरसूचीकुशाग्रसंवर (सू० १०)
उपकरणसंव--रउपधि के दो प्रकार हैं—ओध उपधि और उपग्रह उपधि । जो उपकरण प्रतिदिन काम में आते हैं उन्हें 'ओष' और जो कोई विशिष्ट कारण उपस्थित होने पर संयम की सुरक्षा के लिए स्वीकृत किए जाते हैं उन्हें 'उपग्रह उपधि कहा जाता है।
उपकरण संबर का अर्थ है-अप्रतिनियत और अकल्पनीय वस्त्र आदि उपकरणों का अस्वीकार अथवा बिखरे हुए वस्त्र आदि उपकरणों को व्यवस्थित रख देना।
यह उल्लेख औधिक उपधि की अपेक्षा से है।'
सूचौकुशाग्रसंवर-सूई और कुशाग्र का संवरण (संगोपन) कर रखना, जिससे वे शरीरोपघातक न हों। ये उपकरण औधिक नहीं होते किन्तु प्रयोगजनवश कदाचित् रखे जाते हैं।
सूची और कुशाग्र—ये दो शब्द समस्त औपग्रहिक उपकरणों के सूचक हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम आठ भाव-संबर और शेष दो द्रव्य-संबर है।'
६. (मू० १५)
प्रस्तुत सूत्र में प्रमज्या के दस प्रकार बतलाए गए हैं। प्रव्रज्या ग्रहण के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें से कुछेक कारणों का यहाँ उल्लेख है । वृत्तिकार ने दसों प्रकार की प्रव्रज्याओं के उदाहरणों का नामोल्लेख मात्र किया है। उनका विस्तार इस प्रकार है
१. छन्दा-अपनी इच्छा से ली जाने वाली प्रव्रज्या।
(क) एक बौद्ध भिक्षु थे। उनका नाम था गोविंद । एक जैन आचार्य ने उन्हें अठारह बार बाद में पराजित किया। इस पराजय से जिन्न होकर उन्होंने सोचा-'जब तक मैं इनके (जनों के) सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से समझ नहीं लेता, तब तक इनको वाद-प्रतिवाद में जीत नहीं सकूगा।'
ऐसा सोचकर वे उन्हीं जैन आचार्य के पास आए, जिन्होंने उन्हें पराजित किया था। उन्होंने ज्ञान सीखना प्रारम्भ किया । धीरे-धीरे उन्होंने सारा ज्ञान सीख लिया। इस चेष्टा से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने पर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
एक बार वे आचार्य के पास गए। अपनी सारी बात उनके समक्ष सरलता से रखते हुए उन्होंने कहा---'आप मुझे व्रत (प्रनज्या) ग्रहण करायें।' आचार्य ने उन्हें दीक्षित कर दिया । अन्त में वे सूरि पद पर अधिष्ठित हुए और वे गोविन्दवाचक के नाम से प्रसिद्ध हुए।
१. ओपनियुक्ति गाथा ६६८, वृत्ति पृष्ठ ४६६ : तन ओघोपधि
नित्यमेष यो गृह्यते, अवग्रहोपधिस्तु कारणे आपन्ने संयमा
यो गृह्यते सोऽवग्रहोषधिरिति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४८ : उपकरणसंवर :-अप्रतिनियता
कल्पनीयवस्वाद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्य
संवरणमुपकरणसंबरः, अयं चौचिकोपकरणापेक्षः । ३. वही, वृत्ति पन ४४८ : एष तूपलक्षणत्वात्समस्तीपग्रहिकोप
करणापेक्षो द्रष्टव्यः, इह चान्त्यपदद्वयेन द्रव्यसंवरावुक्ताविति । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४६ ।। ५. मुनि पुष्पविजयजी ने गोविवाचक का अस्तित्व काल विक्रम की
पाँचवीं शताब्दी माना है। (महावीर जैन विद्यालय रजत महोत्सव अंक, पृष्ठ १६६-२०१) इन्होंने 'गोविंदनियुक्ति' नामक दार्गनिक ग्रन्थ की रचना की जिसमें एकेन्द्रिय जीवों की सिद्धि की गई है। (निशीथ भाष्य गाथा ३६५६, चूणि)।"
बहुतकल्प के वृतिकार दर्शन-विद्धि कारक ग्रन्थों का नामोल्लेख करते हुए सन्मतितर्क और तत्त्वार्थ के साथ-साथ गोविंदनियुक्ति का भी उल्लेख करते हैं
(क) बृहत्कल्पभाष्य गाथा २८८०, वृत्ति-दर्शनविशुद्धि
कारणीया गोविंदनियुक्तिः, आदि शब्दात् सम्म (न्म)
ति-तत्त्वार्थप्रभृतीनि च, शास्त्राणि । (ख) बही, भाष्य गाथा ५४७३, वृत्ति-आवश्यकचूणि
में भी 'गोविंदनिर्यक्ति' को दर्शन प्रभावक शास्त्र माना है। (आवश्कचूणि),पूर्वभाग, पृष्ठ ३५३ :दरिसणेवि दरिसणप्पभावगाणि । सत्थाणि जहा गोविंदनिज्जुत्तिमादीणि। निशीथभाष्य में गोविंदवाचक का उदाहरण 'भावस्तेन'
के अन्तर्गत लिया है। (क) निशीथभाष्य गाथा ३६५६: गोविंदज्जोणाणे। (ख) वही, गाथा ६२५५ : "गोविंदपवज्जा।
वृत्ति-भावतेणो जहा गोविंदवायगो"। भावस्तेन तीन प्रकार के हैं-ज्ञानस्तेन, दर्शनस्तेन और चारित्रस्तेन । गोविंदवाचक ज्ञानस्तेन थे--अर्थात् ज्ञान लेने के लिए प्रवजित हुए थे।
दशवकालिक नियुक्ति में भी गोविंदवाचक का नामोल्लेख हुआ है।
दशकालिकनियुक्ति गाथा ८२ ।
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