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ठाणं (स्थान)
१००८
स्थान १० : टि० ५०
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित 'तेतली' से यह भिन्न है। इसका विशेष विवरण प्राप्त नहीं है।
६. दशार्णभद्र-दशार्णपुर नगर के राजा का नाम दशार्णभद्र था। एक बार भगवान् महावीर वहां आए। राजा अपने ठाट-बाट के साथ दर्शन करने गया। उसे अपनी ऋद्धि और ऐश्वर्य पर बहुत गर्व था। इन्द्र ने इसके गर्व को नष्ट करने की बात सोची। इन्द्र भी अपनी ऋद्धि के साथ भगवान् को वन्दन करने आया। राजा दशार्णभद्र ने इन्द्र की ऋद्धि देखी। उसे अपनी ऋद्धि क्षीण प्रतीत हुई। वैराग्य बढ़ा और वह वहीं भगवान् के पास दीक्षित हो गया।
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित यही दशार्णभद्र होना चाहिए ! अनुत्तरोपपातिक सूत्र में इसका नामोल्लेख नहीं है। कहींकहीं इसके सिद्धगति प्राप्त करने का उल्लेख भी मिलता है।
१०. अतिमुक्तक-पोसालपुर नगर में विजय नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम 'श्री' था। उसके पुत्र का नाम अतिमुक्तक था। जब वह छह वर्ष का था, तब एक बार गणधर गौतम को भिक्षा-चर्या के लिए घमते देखा। वह उनकी अंगुली पकड़ अपने घर ले गया। भिक्षा दी और उनके साथ-साथ भगवान के पास आ दीक्षित हो गया।
उपर्युक्त विवरण अन्तकृतदशा के छठे वर्ग के पन्द्रहवें अध्ययन में प्राप्त है।
प्रस्तुत सूत्र का अतिमुक्तक मुनि मरकर अनुत्तरोपपातिक में उत्पन्न होता है। अत: दोनों दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति होने चाहिए।
अनुत्तरोपपातिक सूत्र के तीनों वर्गों में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है।
५०. (सू० ११५)
प्रस्तुत सूत्र में दशाश्रुतस्कंध के दस अध्ययनों के विषयों का सूचन है। इनमें से कई एक विषय समवायांग में भी आए हैं। १. बीस असमाधिस्थान
समवाय २० २. इक्कीस सबल
समवाय २१ ३. तेतीस आशातना
समवाय ३३ ४. दस चित्तसमाधिस्थान
समवाय १० ५. ग्यारह उपासक-प्रतिमा
समवाय ११ ६. बारह भिक्षु-प्रतिमा
समवाय १२ ७. तीस मोहनीय स्थान
समवाय ३० दशाश्रुतस्कंध गत इन विषयों के विवरणों में तथा समवायांग गत विवरणों में कहीं-कहीं क्रम-भेद, नाम-भेद तथा व्याख्या-भेद प्राप्त होता है। इन सबकी स्पष्ट मीमांसा हम समवायांग सूत्र के सानुवाद संस्करण में तत्-तत् समवाय के अन्तर्गत कर चुके हैं।
१. असमाधिस्थान-असमाधि का अर्थ है-अप्रशस्तभाव । जिन क्रियाओं से असमाधि उत्पन्न होती है वे अस. माधिस्थान हैं । वे बीस हैं।
देखें-समवायांग, समवाय २० ।
२. शबल---जिस आचरण द्वारा चरित्र धब्बों वाला होता है, उस आचरण या आचरणकर्ता को 'शबल' कहा जाता है। वे इक्कीस हैं।
देखें-समवायांग, समवाय २१ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पन ४८४ : इह त्वयमनुत्तरोपपातिकेषु दश
माध्ययनतयोक्तस्तदपर एवायं भविष्यतीति ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८३ : तेतलिसुत इति यो ज्ञाताध्ययनेषु
श्रूयते, स नाय, तस्य सिद्धिगमनश्रवणात् । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८४ : सोऽयं दशार्णभद्रः सम्भाव्यते, पर
मनुत्तरोपपातिकांगे नाधीतः, क्वचित् सिद्धश्च श्रूयते इति ।
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