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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०:टि०५१
३. आशातना-जिन क्रियाओं से ज्ञान आदि गुणों का नाश किया जाता है, उन्हें आशातना कहते हैं। अशिष्ट और उदंड व्यवहार भी इसी के अन्तर्गत है। आशातना के तेतीस प्रकार हैं।
देखें-समवायांग, समवाय ३३ ।
४. गणि संपदा-इसका अर्थ है-आचार्य की अतिशायी विशेषताएं अर्थात् आचार्य के आचार, ज्ञान, शरीर, वचन आदि विशेष गुण।
५. चित्त-समाधि- इसका अर्थ है-चित्त की प्रसन्नता। इसकी विद्यमानता में चित्त की प्रशस्त परिणति होती है। देखें-समवायांग, समवाय १० । ६. उपासक-प्रतिमा--श्रावकों के विशेष व्रत । देखें--समवायांग, समवाय ११ । ७. भिक्षु-प्रतिमा---मुनियों के विशेष अभिग्रह । देखें-समवायांग, समवाय १२ ॥ ८. पर्युषणाकल्प-मूल प्राकृत शब्द है 'पज्जोसवणाकप्प'। वृत्तिकार ने 'पज्जोसवणा' के तीन संस्कृत रूप दिये हैं(१) पर्यासवना-जिससे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी ऋतुबद्ध-पर्यायों का परित्याग किया जाता है। (२) पर्युपशमना-जिसमें कषायों का उपशमन किया जाता है। (३) पर्यषणा--जिसमें सर्वथा एक क्षेत्र में जघन्यत: सतरह दिन और उत्कृष्टत: छह मास रहा जाता है।' ९. मोहनीयस्थान-मोहनीय कर्म बंध की क्रियाएं । ये तीस हैं। देखें-समवायांग, समवाय ३० । १०. आजातिस्थान-आजाति का अर्थ है-जन्म । वह तीन प्रकार का होता है—सम्मूर्छन, गर्भ और उपपात ।
५१. (सू० ११६)
स्थानांग में निर्दिष्ट प्रश्नव्याकरण का स्वरूप वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण से सर्वथा भिन्न है।'
प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित दस अध्ययनों के नामों से समूचे सूत्र के विषय की परिकल्पना की जा सकती है। इस सूत्र में प्रश्न-विद्याओं का प्रतिपादन था। इन विद्याओं के द्वारा वस्त्र, कांच, अंगुष्ठ, हाथ आदि-आदि में देवता को बुलाया जाता था और उससे अनेक विध प्रश्न हल किए जाते थे।
इस विवरण वाला सूत्र कब लुप्त हुआ यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता और वर्तमान रूप का निर्माण किसने, कब किया यह भी स्पष्ट नहीं है। यह तो निश्चित है कि वर्तमान में उपलब्ध रूप 'प्रश्नव्याकरण' नाम का वाहक नहीं हो सकता।
उपलब्ध प्रश्नव्याकरण के अध्ययन ये हैं---- १. प्राणातिपात
६. प्राणातिपात विरमण २. मृषावाद
७. मृषावाद विरमण ३. अदत्तादान
८. अदत्तादान विरमण ४. मैथुन
६. मैथुन विरमण ५. परिग्रह
१०. परिग्रह विरमण दिगंबर साहित्य में भी प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय वही निर्दिष्ट है जिसका निर्देश यहां किया गया है।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८५ । २. स्थानांगवृत्ति, पन ४८५ : प्रश्नव्याकरणदशा इहोक्तरूपा न
दश्यन्ते दृश्यमानास्तु पञ्चाश्रवपञ्चसंवरात्मिका इति।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८५ : प्रश्नविद्या: यकाभिः क्षोमकादिषु
देवतावतारः क्रियते इति । ४. तत्वार्थवार्तिक १।२०।
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