SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) १७१ स्थान ३ : सूत्र ८६-८७ ८६. तिहि ठाणेहि लोगंतिया देवा त्रिभिः स्थानः लोकान्तिका देवा: मानुषं ८६. तीन कारणों से लोकान्तिक" देव तत्क्षण माणुसं लोगं हव्वमागच्छेज्जा, तं लोकं अर्वाक् आगच्छेयुः, तद्यथा- मनुष्यलोक में आते हैं-१. अर्हन्तों का जहा—अरहंतेहिं जायमाणेहि, अर्हत्सु जायमानेषु, अर्हत्सु प्रव्रजत्सु, जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रवजित होने अरहंतेहिं पव्वयमाणेहि, अर्हतां ज्ञानोत्पादमहिमसु । के अवसर पर, ३. अर्हन्तों को केवलज्ञान अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु। उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर। दुप्पडियार-पदं दुष्प्रतिकार-पदम् दुष्प्रतिकार-पद ८७. तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो ! तं त्रिविधं दुष्प्रतिकारं आयुष्मन्! श्रमण!, ८७. भगवान् ने कहा-आयुष्मान श्रमणो ! जहा—अम्मापिउणो, भट्टिस्स, तद्यथा—अम्बापितुः, भर्तुः, तीन पद दुष्प्रतिकार हैं-उनसे ऊर्ऋण धम्मायरियस्स। धर्माचार्यस्य। होना दुःशक्य है-१. मातापिता, २. भर्ता पालन-पोषण करने वाला, ३. धर्माचार्य । १. संपातोवि य णं केइ पुरिसे (१) संप्रातरपि च कश्चित् पुरुषः । १. कोई पुत्र अपने माता-पिता का प्रात:अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहि अम्बापितरं शतपाकसहस्रपाकाभ्यां काल में शतपाक", सहस्रपाक तेलों से तेल्लेहि अन्भंगेत्ता, सुरभिणा तैलाभ्यां अभ्यज्य, सुरभिना गन्धाटकेन मर्दन कर, सुगन्धित चूर्ण से उबटन कर, गंधट्टएणं उठनट्टित्ता, तिहिं उदगेहि उद्वर्त्त य, त्रिभिः उदकैः मज्जयित्वा, गंधोदक, शीतोदक तथा उष्णोदक से मज्जावेत्ता, सव्वालंकारविभूसियं सर्वालङ्कारविभूषितं कृत्वा, मनोज्ञं स्नान करवा कर, सर्वालंकारों से उन्हें करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्धं स्थालीपाकशुद्धं अष्टादशव्यञ्जनाकुलं विभूषित कर, अठारह प्रकार के स्थालीअट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोया- भोजनं भोजयित्वा यावज्जीवं पृष्ठ्य- पाक-शुद्ध व्यञ्जनों से युक्त भोजन वेत्ता जावज्जीवं पिट्ठिवडेंसियाए वतंसिक्या परिवहेत्, तेनाऽपि तस्य करवा कर, जीवन-पर्यन्त कांवर [बहंगी] परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मा- अम्बापितु: दुष्प्रतिकारं भवति । में उनका परिवहन करे तो भी वह उनके पिउस्स दुप्पडियारं भवइ। उपकारों से ऊऋण नहीं हो सकता। अहे णं से तं अम्मापियर केबलि- अथ स तं अम्बापितरं केवलिप्रज्ञप्ते वह उनसे तभी ऊर्ऋण हो सकता है पण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्ण- धर्म आख्याय प्रज्ञाप्य प्ररूप्य स्थापयिता जबकि उन्हें समझा-बुझाकर, प्रबुद्ध कर, वइत्ता परूवइत्ता ठावइता भवति, भवति, तेनैव तस्य अम्बापितुः सुप्रति- विस्तार से बताकर केवलीप्रज्ञप्त धर्म में तेणामेव तस्स अम्मापि उस्स कारं भवति आयुष्मन् ! श्रमण ! स्थापित करता है। सुप्पडियारं भवति समणाउसो ! २. केइ महच्चे दरिदं समुक्क- (२) कश्चित् महा! दरिद्रं समुत्कर्ष- २. कोई अर्थपति किसी दरिद्र का धन सेज्जा। तए णं से दरिद्दे समुक्कि? येत् । ततः स दरिद्रः समुत्कृष्ट: सन् आदि से समुत्कर्ष करता है। संयोगवश समाणे पच्छा पुरं चणं विउल- पश्चात् पुरश्च विपुलभोगसमिति- कुछ समय बाद या शीघ्र ही वह दरिद्र भोगसमितिसमण्णागते यावि समन्वागतश्चापि विहरेत् । विपुल भोगसामग्री से युक्त हो जाता है विहरेज्जा। और वह अर्थपति किसी समय दरिद्र तए णं से महच्चे अण्णया कयाइ ततः स महार्चः अन्यदा कदापि दरिद्री- होकर सहयोग की कामना से उसके पास दरिद्दीहूए समाणे तस्स दरिद्दस्स भूतः सन् तस्य दरिद्रस्य अन्तिके अर्वाक् आता है। उस समय वह भूतपूर्व दरिद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy